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मूकमाटी-मीमांसा :: 175
जीवन की वास्तविकता एवं तथ्यात्मकता की प्रतीति का एक सटीक कथन :
“अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं और/इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव ! अर्थ यह हुआ कि/पीड़ा की अति ही/पीड़ा की इति है/और
पीड़ा की इति ही/सुख का अथ है।” (पृ. ३३) ठीक ऐसा ही विचार अंग्रेजी साहित्य में उपलब्ध है :
"When the things are at their worst, they must mend." उर्दू के प्रख्यात शायर 'ग़ालिब' की कविता में भी यही चिन्तन है :
"दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।" ग्रन्थ में न्याय सम्बन्धी चला आ रहा एक विश्वास इस प्रकार है :
"आशातीत विलम्ब के कारण/अन्याय न्याय-सा नहीं
न्याय अन्याय-सा लगता ही है।" (पृ. २७२) । यही भाव शेक्सपियर के एक नाटक में है :
"Justice delayed is justice denied." इसी प्रकार :
"पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से
घृणा करो/अयि आर्य !" (पृ. ५०-५१) जबकि अंग्रेजी में सुनते आए हैं :
"Hate the sin, not the sinner.' आचार्यश्री ने चिन्तन को समाज के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में रख कर जाँचा है। "वसुधैव कुटुम्बकम्' की इस सम्बन्ध में व्याख्या द्रष्टव्य है :
""वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआ है 'वसु' यानी धन-द्रव्य/'धा' यानी धारण करना/आज
धन ही कुटुम्ब बन गया है/धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) शैली : इस शीर्षक में केवल दो बिन्दुओं की ओर संकेत है-मानवीकरण एवं प्रतीक विधान । माटी का मानवीकरण तो ग्रन्थ का वैशिष्ट्य ही है । उसके अतिरिक्त जिन उपकरणों का मानवीकरण हुआ है उनमें से कुछ ये हैं- अवा, अग्नि, कुम्भ, मछली, स्फटिक माला, लेखनी आदि । प्रतीक शैली भाषा सौष्ठवार्थ में अनेक बार अपरिहार्य होती है। वेदों में उसका प्रचुर उपयोग है । प्रतीकों के भाव जाने बिना वेदों का अध्ययन दुष्कर है। विशेषतः साहित्यिक ग्रन्थों में प्रयुक्त प्रतीकों की जानकारी, भावों की थाह लेने के लिए आवश्यक होती है । 'मूकमाटी' के कुछ प्रतीक हैं : बालटी, रजत