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________________ 172 :: मूकमाटी-मीमांसा "मान को टीस पहुँचने से ही,/आतंकवाद का अवतार होता है। अति-पोषण या अति-शोषण का भी/यही परिणाम होता है,/तब जीवन का लक्ष्य बनता है, शोध नहीं,/बदले का भाव "प्रतिशोध ! जो कि/महा-अज्ञानता है, दूरदर्शिता का अभाव/पर के लिए नहीं, अपने लिए भी घातक !" (पृ. ४१८) "नहीं"नहीं"नहीं"/लौटना नहीं !/अभी नहीं." कभी भी नहीं."/क्योंकि अभी आतंकवाद गया नहीं,/उससे संघर्ष करना है अभी/वह कृत-संकल्प है अपने ध्रुव पर दृढ़।/जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती/धरती यह,/ये आँखें अब आतंकवाद को देख नहीं सकतीं,/ये कान अब आतंक का नाम सुन नहीं सकते,/यह जीवन भी कृत-संकल्पित है कि उसका रहे या इसका/यहाँ अस्तित्व एक का रहेगा।" (पृ. ४४१) आइए, हम आचार्यश्री के दर्शन कर सन्त-संयत बनने की प्रेरणा लें तथा यथा उपलब्ध में सुखानुभूति करते हुए विकास के पथ पर आगे बढ़ें: "सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है/संसार का अन्त दिखने लगता है, समागम करनेवाला भले ही/तुरन्त सन्त-संयत/बने या न बने इसमें कोई नियम नहीं है,/किन्तु वह/सन्तोषी अवश्य बनता है । सही दिशा का प्रसाद ही/सही दशा का प्रासाद है।" (पृ. ३५२) दण्ड-संहिता का प्रमुख लक्ष्य अपराधी की उद्दण्डता को दूर करना है, उसे क्रूरता से दण्डित करना नहीं । वे काँटों को काटने की नहीं, बल्कि उनके घावों को सहलाने की हमें शिक्षा देते हैं। वे पापी से नहीं पाप से, पंकज से नहीं पंक से घृणा करने की हमें सीख देते हैं : "प्राणदण्ड से/औरों को तो शिक्षा मिलती है,/परन्तु जिसे दण्ड दिया जा रहा है/उसकी उन्नति का अवसर ही समाप्त । दण्डसंहिता इसको माने या न माने,/क्रूर अपराधी को क्रूरता से दण्डित करना भी/एक अपराध है,/न्याय-मार्ग से स्खलित होना है।" (पृ. ४३१) न्याय-शास्त्र का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि चोरी करने वाला तथा चोरी की प्रेरणा देने वाला समान रूप से दोषी है। आचार्यश्री इस सिद्धान्त से भी आगे बढ़कर उद्घोष करते हैं कि चोर को चोरी करने की प्रेरणा देने वाला व्यक्ति चोर से अधिक दोषी है : ___ "चोर इतने पापी नहीं होते/जितने कि/चोरों को पैदा करने वाले ।" (पृ. ४६८) राजनीति, प्रशासन और न्यायपालिका राज्यशक्ति के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं। इन शक्ति स्तम्भों के विभिन्न
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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