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मूकमाटी-मीमांसा :: 171 किसी पर बरसता भी नहीं-/यानी/मायाचार से दूर रहता है सिंह । ...सिंह विवेक से काम लेता है/सही कारण की ओर ही
सदा दृष्टि जाती है सिंह की।" (पृ. १६९-१७०) __ अधिकांश न्यायिक एवं प्रशासनिक अधिकारी अपने शारीरिक सुख, पदोन्नति एवं वेतन वृद्धि के चिन्तन में अहर्निश संलग्न रहते हैं। उनके लिए निम्नांकित पंक्तियाँ वास्तविक जीवन लक्ष्य निर्धारित करने की प्रेरणा देती हैं :
"भोग पड़े हैं यहीं/भोगी चला गया,/योग पड़े हैं यहीं/योगी चला गया, कौन किस के लिए-/धन जीवन के लिए/या जीवन धन के लिए?
मूल्य किसका/तन का या वेतन का,/जड़ का या चेतन का?" (पृ. १८०) प्रत्येक अधिकारी को पुरुषार्थ एवं परिश्रम की प्रेरणा देते हुए पुरुषार्थ एवं परिश्रम के जीवन्त शीर्षपुरुष कहते
हैं:
"बाहुबल मिला है तुम्हें/करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही, परिश्रम के बिना तुम/नवनीत का गोला निगलो भले ही,
कभी पचेगा नहीं वह/प्रत्युत, जीवन को खतरा है !" (पृ. २१२) न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह सही व्यक्ति पर अनुग्रह करें एवं समाजविरोधी आचरण को नियन्त्रित करें:
"शिष्टों पर अनुग्रह करना/सहज-प्राप्त शक्ति का/सदुपयोग करना है, धर्म है। और,/ दुष्टों का निग्रह नहीं करना/शक्ति का दुरुपयोग करना है, अधर्म है।"
__ (पृ. २७६-२७७) राज्य शासन द्वारा अपने अधीनस्थ अल्प वेतनभोगी कर्मचारियों को पर्याप्त वेतन एवं सुविधाएँ दी जाएँ और उन्हें विकास के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ। इन सिद्धान्तों का चित्रण निम्नांकित पंक्तियों में उत्कृष्ट ढंग से किया गया
है
"थोड़ी-सी/तन की भी चिन्ता होनी चाहिए,/तन के अनुरूप वेतन अनिवार्य है, मन के अनुरूप विश्राम भी।/मात्र दमन की प्रक्रिया से
कोई भी क्रिया/फलवती नहीं होती है।” (पृ. ३९१) __ शासन का महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है अल्प बचत के लिए प्रोत्साहन । आचार्यश्री यह तथ्य इन पंक्तियों में इस प्रकार पुष्ट करते हैं :
"धन का मितव्यय करो, अतिव्यय नहीं
अपव्यय तो कभी नहीं,/भूलकर स्वप्न में भी नहीं।” (पृ. ४१४) देश तथा प्रदेश में फैलता हुआ आतंक सामान्यजन की सतत उपेक्षा, उपहास, शोषण और अपमान का परिणाम है । यह स्थापित करते हुए आचार्यश्री नीति निर्धारकों को महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन देते हुए कहते हैं :