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________________ काव्य और अध्यात्म का अनूठा संगम : 'मूकमाटी' डॉ. उमा पाण्डेय जैन मुनि आचार्य विद्यासागर का महाकाव्य 'मूकमाटी' दर्शन एवं काव्य का एक रला-मिला रूप है । सम्पूर्ण काव्य का पारायण करने पर पाठक के मन में एक विचित्र - सा प्रश्न सहज उठ जाता है - क्या यह कृति मात्र काव्य है या मात्र दर्शन ? इसका कारण यह है कि मुनिवर ने अपनी आध्यात्मानुभूति को काव्य के माध्यम से उपस्थित किया है। जिस प्रकार महर्षि वाल्मीकि ने आदिकाव्य 'रामायण' में भगवान् राम की कथा के व्याज से भारतीय दर्शन के विभिन्न तत्त्वों को काव्यात्मक रूप दिया है, उसी प्रकार आचार्य विद्यासागर ने जैन दर्शन के मूल तत्त्वों को काव्य के माध्यम से दर्शाया है । अध्यात्म और काव्य में अभेद स्थापित कर आचार्य ने उपनिषद् की 'रसो वै स:' की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है। भारतीय काव्य परम्परा से हटकर आचार्य ने माटी जैसी तुच्छ वस्तु को काव्य की नायिका एक विशेष प्रयोजन से चुना है। भारतीय दर्शन के अनुसार जड़ और चेतन का द्वैत असमाहित है। जड़ या भूत पदार्थ कभी चेतन नहीं बन सकता । इसीलिए द्वैतवादी दार्शनिक सम्प्रदाय - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग तथा जैन- जड़ एवं चेतन तत्त्वों की किसी न किसी रूप में स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करते हैं। जड़वादी चार्वाक जड़ के अतिरिक्त चेतन तत्त्व की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं करता। उधर अध्यात्मवादी अद्वैत दर्शन तथा विज्ञानवाद एक मात्र चेतन ब्रह्म या विज्ञान को ही परमार्थ सत् मानता है । लेकिन आचार्य ने जड़ माटी को अपने काव्य का विषय बनाकर उसमें आध्यात्मिकता का विका दिखाकर भारतीय दर्शन की चिरपोषित मान्यता को तिलांजली दी है। साथ ही आज के भौतिकवादी समाज को यह दर्शाया है कि जब जड़ माटी अध्यात्म लाभ कर सकती है तो क्यों भौतिकता में लिप्त मानव अध्यात्म की ओर उन्मुख नहीं हो सकता । भौतिकता तो बाह्य है, अध्यात्म व्यक्ति की मन:स्थिति है । फलतः भौतिक सुखों का भोग करते हुए भी व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपना सकता है। चार्वाक का जीवन व्यतीत करते हुए हम एक वेदान्ती की भािँ नहीं सोच सकते ? पंक में अवस्थित पद्मपत्र का दृष्टान्त इसी तथ्य का परिचायक है। यही उपनिषद् वर्णित जीवनमुक्त की अवस्था है जहाँ वह भौतिक जगत् में रहकर भी उसमें लिप्त नहीं होता । 'मूकमाटी' में माटी को प्रधान पात्र या नायिका का स्थान देने के पीछे आचार्य का एक विशेष प्रयोजन छिपा है । प्राय: भारतीय दर्शन में, विशेषकर सांख्य और अद्वैत वेदान्त में जड़ प्रकृति तथा माया बन्धन का मूल कारण माना गया है। इनके सम्पर्क में आने पर नित्य - मुक्त पुरुष या ब्रह्म कर्म - बन्धन में पड़ जाता है और जन्म-मरण के चक्र भटकता फिरता है । इसी दार्शनिक तथ्य को काव्य में अभिव्यक्त करते हुए भारतीय दार्शनिकों एवं महाकवियों ने 'नारी' को 'नरक का द्वार' या 'माया' को 'महाठगिनी' तक कह डाला है। इतना ही नहीं, भारतीय समाज की संरचना में उक्त वैचारिकं तत्त्व स्पष्ट परिलक्षित होता है । स्त्री और पुरुष समाज के दो समान घटक होने पर भी, स्त्री को भारतीय समाज में द्वितीय कोटि के नागरिक का दर्जा मिला हुआ है। आचार्य शंकर जैसे ज्ञानी महापुरुष, जो एक ओर उपनिषद् को प्रमाण मानने का दम भरते हैं, जिसमें 'एको देवः सर्वभूतेषु गूढः' या 'सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा' की बात कही गई है, नारी को 'नरक का द्वार' कहने में नहीं हिचकते । यदि स्त्री और पुरुष दोनों में ही एक अद्वय तत्त्व का वा तो कैसे स्त्री बन्धन का कारण और पुरुष मोक्ष का अधिकारी कहा जा सकता है ? शरीर चाहे स्त्री का हो या पुरुष का मात्र उपाधि है, और उपाधि का नाश ही अद्वैत वेदान्त में मोक्ष कहा गया है। अतः आचार्य शंकर का स्त्री के प्रति दृष्टिकोण समीचीन प्रतीत नहीं होता । जैन दर्शन में स्त्री को मोक्षत्व लाभ से वंचित रखना संकीर्ण एवं पक्षपात दृष्टि का परिचायक है। यदि जैनधर्म जैन साध्वी बन सकती है तो मोक्ष लाभ क्यों नहीं कर सकती ? आचार्य विद्यासागर ने अपनी कृति में 'माटी' जैसे तुच्छ तत्त्व को नायिका का स्थान देकर जहाँ एक ओर अपनी उदार दृष्टि का परिचय दिया है वहीं दूसरी ओर भारतीय
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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