________________
160 :: मूकमाटी-मीमांसा
चाहिए। अन्यथा वह यात्रा नाम की है, यात्रा की शुरूआत अभी नहीं हुई (पृ. २६७) ।
आशा : आशा को पाशा समझो (पृ. १५० ) ।
स्वप्न : 'स्व' यानी अपना, 'प्' यानी पालन-संरक्षण और 'न' यानी नहीं, अर्थात् जो निजभाव का संरक्षण नहीं कर सकता, वह औरों को क्या सहयोग देगा ? अतीत से जुड़ा तथा मीत से मुड़ा, बहु- उलझनों में उलझा मन ही स्वप्न माना जाता है (पृ. २९५) ।
धरणी : धरणी शब्द ही स्वयं विलोम रूप से कह रहा है कि धरणी नीरध । नीर को धारण करे, नीर का पालन करे, सो धरणी है (पृ. ४५२ - ४५३) ।
गुणेषु कृतज्ञता : जैसे मणियों में नीलमणि, कमलों में नीलकमल, सुखों में शील सुख, गिरियों में मेरुगिरि, सागरों में क्षीर-सागर, , मरणों में वीरमरण, मुक्ताओं में मत्स्य मुक्ता उत्तम माने जाते हैं, वैसे ही गुणों में कृतज्ञता गुण शोभित होता है (पृ. ४५३ - ४५४) ।
धरती : धरती शब्द का भाव विलोम रूप से यही निकलता है - धरती तीरध । यानी जो तीर को धारण करती है या शरणागत को तीर पर धरती है; वह धरती कहलाती है (पृ. ४५२) ।
तीरथ : शरणागत को तारे सो तीरथ है (पृ. ४५२) ।
समाजवाद : समाज का अर्थ होता है समूह और समूह यानी सम-समीचीन ऊह - विचार है । समीचीन विचार ही सदाचार की नींव है । प्रचार-प्रसार से दूर प्रशस्त आचार-विचारवालों का जीवन ही समाजवाद है (पृ. ४६१) । सत्संगति : जैसी संगति होती है, वैसी मति होती है। जैसी मति होती है, वैसी गति होती है । उजली - उजली जल की धारा धरा-धूल में आकर धूमिल हो दलदल बन जाती है। नीम की जड़ों में जाकर वह कटु हो जाती है। सागर में जाकर वह लवणाकर कहलाती है । विषधर के मुख में जाकर विष बन जाती है। उसी प्रकार जैसी संगति मिलती है, व्यक्ति वैसा बनता है (पृ. ८) ।
नियति और पुरुषार्थ : 'नि' यानी निज में ही 'यति' यानी यतन - स्थिरता ही 'नियति' है । 'पुरुष' यानी आत्मा - परमात्मा,'अर्थ' यानी प्राप्तव्य - प्रयोजन है । आत्मा को छोड़कर सब पुरुषार्थों को विस्मृत करना ही सही 'पुरुषार्थ है (पृ.३४९) ।
[ सम्पादक- पार्श्व ज्योति (पाक्षिक), बिजनौर - उत्तरप्रदेश, १ जुलाई, १९९० ]
पृष्ठ १४५
कर
किसी नय में बंध मुक्त जंगी रीत है।