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________________ : मूकमाटी-मीमांसा 162:: चिन्तन धारा में व्याप्त स्त्री के प्रति संकीर्ण एवं पक्षपातपूर्ण रवैये का विरोध किया है। उनकी दृष्टि में माटी जैसा जड़ पदार्थ भी 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' कर, 'वर्ण - लाभ' कर श्रेय की प्राप्ति कर सकता है । इतना ही नहीं, नायिका रूप में मिट्टी का चित्रण कर स्त्री को उसका उचित स्थान प्रदान करना है । स्त्री के लिए प्रयुक्त पदों, यथा - भीरु, अबला, कुमारी, सुता, दुहिता आदि की व्याख्या स्त्री के प्रति आचार्य के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है । आचार्य यह मानते हैं कि स्त्री स्वभाव से कुपथगामिनी नहीं होती, , बल्कि : 64 'प्राय: पुरुषों से बाध्य हो कर ही कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को ।" (पृ. २०१ ) स्त्री में विवेक स्वाभाविक है : 44 'कुपथ - सुपथ की परख करने में / प्रतिष्ठा पाई है स्त्री - समाज ने ।” (पृ.२०२) ये तो जीवन में मंगलमय माहौल लाती हैं और पुरुष को सही गन्तव्य का रास्ता बताती हैं, तभी तो 'महिला' कहलाती हैं। गृहस्थ आश्रम में प्रवेशकर पुरुष की काम-वासना को स्त्री संयत कर उसे पाप-पथगामी होने से बचाती हैं । वास्तव कहलाने का वही अधिकारी है जिसकी दृष्टि में सभी प्राणी, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, समान हैं। इस दृष्टि से आचार्य विद्यासागर सच्चे अर्थ में मुनि हैं। माटी रूप जड़ पदार्थ को आध्यात्मिकता का लाभ प्राप्त करा आचार्य ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जड़ तत्त्व बन्धन का कारण नहीं । बन्धन का कारण व्यक्ति की अपनी जड़ता है । यहाँ एक और बात ध्यान देने की है । जब मिट्टी जैसा भूतपदार्थ श्रेयलाभ कर सकता है तो भोगविलास के भौतिक साधनों से घिरा आज का मनुष्य जैसा चेतन प्राणी आत्मलाभ क्यों नहीं कर सकता ? वास्तव में 'मूकमाटी' का यही मुखर सन्देश है जो आज के सन्दर्भ में ठीक उतरता है। नाना प्रकार के उपभोग के भौतिक साधनों से घिरा आज का मानव दिग्भ्रमित हो रहा है । वह ऐन्द्रिय विषयों में सुख और शान्ति खोज रहा है। ऐसे समय में 'मूकमाटी' को पाठकों के हाथों में सौंप कर मानों परम कृपालु विद्यासागरजी ने उन्हें पतवार थमा दी है। 'मूकमाटी' मात्र काव्य नहीं है। यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है। एक ऐसा सन्त जिसने आध्यात्मिकता को अपने जीवन में जिया है, जिसने साधना के पथ पर सतर्कता के चलते हुए आत्मलाभ किया है। एक ऐसा सन्त जिसने तपस्या से अर्जित जीवन दर्शन को स्वानुभूति में उतारकर महाकरुणा से प्रेरित हो सबके लिए प्रगट किया है। 'मूकमाटी' काव्य और अध्यात्म का अनूठा संगम है । यद्यपि इसे महाकाव्य की परम्परागत परिभाषा से परिभाषित नहीं किया जा सकता, फिर भी परिमाण की दृष्टि से यह महाकाव्य की सीमाओं को स्पर्श करता है । चार खण्डों तथा लगभग पाँच सौ पृष्ठों में निबद्ध यह काव्य कृति अपने अन्दर महाकाव्य के अनेक गुणों को सँजोए हुए है। प्रथम पृष्ठ खोलते ही हमें प्रकृति का बड़ा ही सजीव चित्रण मिलता है : “सीमातीत शून्य में / नीलिमा बिछाई, और "इधर नीचे / निरी नीरवता छाई, निशा का अवसान हो रहा है / उषा की अब शान हो रही है ।" (पृ. १) शरद् वर्णन अपने में सानी नहीं रखता । सर्वत्र हिमपात हो गया है : "पेड़-पौधों की / डाल-डाल पर / पात-पात पर हिम-पात है । ... कम्पन के परिचय से / परिचित सब के गात हैं ।" (पृ. ९० )
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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