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________________ 148 :: मूकमाटी-मीमांसा अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं।/'ही' एकान्तवाद का समर्थक है 'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।/हम ही सब कुछ हैं यूँ कहता है 'ही' सदा,/तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो !/और, 'भी' का कहना है कि/हम भी हैं/तुम भी हो/सब कुछ! 'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है/'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है, 'ही' पश्चिमी-सभ्यता है/'भी' है भारतीय-संस्कृति, भाग्य-विधाता । रावण था 'ही' का उपासक/राम के भीतर 'भी' बैठा था।/यही कारण कि राम उपास्य हुए, हैं, रहेगे आगे भी।/'भी' के आस-पास बढ़ती-सी भीड़ लगती अवश्य,/किन्तु भीड़ नहीं,/'भी' लोकतन्त्र की रीढ़ है। लोक में लोकतन्त्र का नीड/तब तक सुरक्षित रहेगा जब तक 'भी' श्वास लेता रहेगा।/'भी' से स्वच्छन्दता-मदान्धता मिटती है स्वतन्त्रता के स्वप्न साकार होते हैं,/सद्विचार सदाचार के बीज 'भी' में हैं, 'ही' में नहीं।/प्रभु से प्रार्थना है, कि/'ही' से हीन हो जगत् यह अभी हो या कभी भी हो/'भी' से भेंट सभी की हो।” (पृ. १७२-१७३) यह अकेला काव्यांश 'भी' और 'ही' को विश्लेषित करता हुआ विद्यासागरजी के सम्पूर्ण काव्य व्यक्तित्व को भी विश्लेषित करने में सक्षम है, जहाँ वे अपने जीवन दर्शन को आधुनिक युग तक विस्तृत कर देते हैं, जहाँ वे केवल एकान्त-अनेकान्त दर्शन का परिचय ही नहीं कराते बल्कि अनेकान्त की सार्वकालिक और सार्वभौमिक अनिवार्यता की भी प्रतीति कराते हैं, जो वर्तमान विश्व की सामाजिक व्यवस्था के लिए भी अनिवार्य है । जहाँ सभ्यता, संस्कृति, स्वाधीनता और मानवीय मूल्यों का भाग्योदय होता है और जहाँ लोक जीवन अपने तन्त्र, अपने नियमों का निर्माण कर उनके अन्तर्गत सामाजिक व्यवहार करता हुआ परस्पर के साहचर्य भावों का मानवीय उन्मेष करता है । इस रूप में 'मूकमाटी' हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत हमारे समय का प्रतिनिधित्व करने वाला ऐसा महाकाव्य है जो विश्व साहित्य में अपनी पहचान कायम करने में सक्षम है। जैसे-जैसे विश्व की महत्त्वपूर्ण भाषाओं में इसका अनुवाद होकर सामने आने लगेगा, वैसे यह बात प्रमाणित होगी। . अनेकान्त के खम्भों पर विरचित 'मूकमाटी' को महाकाव्य मानने में यदि संकोच करें तो इसके चारों खण्डों को चार खण्डकाव्य तो मान लें। यदि वह भी नहीं तो मूल कथा प्रवाह के अनन्तर बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी तथा दृष्टान्त कथाओं वाले प्रसंगों को मुक्तक काव्य के अन्तर्गत स्वीकार लें। 'भी' की यह छूट कोई महाकाव्य ही दे सकता है। काव्य के अन्य रूपों में वह औदात्त्य और सामर्थ्य नहीं। अलग से आँखें निकाल कर देखने वाला आँखों का डॉक्टर कभी नहीं होगा। उसे सम्पूर्ण शरीर के साथ उनकी जीवन्तता देखनी होती है । इस रूप में 'मूकमाटी' जैन धर्म के एक महान् सन्त, महान् आचार्य और महान् कल्याणक द्वारा रचा जाकर भी जैन धर्म का ही ग्रन्थ नहीं है । जैसे कि 'महाभारत' या 'रामायण' या 'रामचरितमानस' क्रमश: वेदव्यास, वाल्मीकि और तुलसीदास जैसे ऋषियों द्वारा लिखे जाकर भी किसी एक धर्म के ग्रन्थ न होकर पूरी मानव जाति के गौरव ग्रन्थ हैं। 'मूकमाटी' इसी प्रकार की साहित्यिक कृति है। यह बात कहने के पीछे एक कारण भी है । जब नेमावर (देवास) मध्यप्रदेश में पहले-पहल विद्यासागरजी आए तो मैं भी उन्हें देखने-सुनने हरदा से बीच-बीच में जाता रहा । उनके कवि रूप से थोड़ा परिचय था ही, सो यह आकर्षण भी रहा कि एक रचनाकार धर्मनायक होकर कैसा महसूस होता है ? वह क्या कहता है ? अपने अनुयायियों को कितना मोहित,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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