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मूकमाटी-मीमांसा :: 147 और कभी आलम्बन और कभी उद्दीपन के रूप में उपस्थित होकर तत्त्व दर्शन के रस का अभिसिंचन करते रहते हैं। मूल नायक तो जिन दर्शन ही है। उसके संवाहक कुम्हार, घट, माटी और इनसे सम्बद्ध अवतरणों का प्रवेश, उन सब की अपने-अपने ढंग से प्रस्तुति और उनके वार्तालाप - ये सब मिलकर जिस वृहत् परिवेश का निर्माण करते हैं, वह महाकाव्य में ही सम्भव है - इसलिए भी 'मूकमाटी' को काव्य के इस रूप में रखकर देखना संगत लगता है । महाकाव्य कुछ ऐसे गुण और विशेषताएँ होती हैं, जो चाहे शब्दों में व्यक्त न हों किन्तु पाठक समाज अपनी सहज बुद्धि से आत्मसात् कर लेता है । 'मूकमाटी' को महाकाव्य के स्थिर मानदण्डों और बाह्य लक्षणों के द्वारा परखने के बजाय समाज स्वीकृति के आधार पर भी देखना होगा। संकीर्ण मानदण्डों से महाकाव्य के स्वरूप का निर्णय करना बेमानी है। देखा यह जाना चाहिए कि महाकाव्य की रचना की महत्त्वपूर्ण प्रेरणा क्या है, उसमें काव्य प्रतिभा अपने पूरे उन्मेष के साथ किस छोर तक विद्यमान है, उसमें गुरुत्व कितना है, उसका वर्ण्य विषय कहाँ तक युग सापेक्ष है, उसकी शैली का सम्मोहन कितना असरदार है और उसमें कितनी प्राणवत्ता मौजूद है, जिसके बल पर वह एक जीवन्त कथानक संवर्द्धन करता चलता है। 'हिन्दी साहित्य कोश' (प्रधान सम्पादक - धीरेन्द्र वर्मा) में महाकाव्य पर विचार करते हुए उसकी जो एक परिभाषा हो सकती है, वह इस प्रकार है : "महाकाव्य वह छन्दोबद्ध कथात्मक काव्यरूप है जिसमें क्षिप्र कथा प्रवाह या अलंकृत वर्णन अथवा मनोवैज्ञानिक चित्रण से युक्त ऐसा सुनियोजित सांगोपांग और जीवन्त कथानक हो, जो रसात्मकता प्रभावान्विति उत्पन्न करने में पूर्ण समर्थ हो सके, जिसमें यथार्थ, कल्पना या सम्भावना पर आधारित ऐसे चरित्र या चरित्रों के महत्त्वपूर्ण जीवनवृत्त का पूर्ण या आंशिक रूप में वर्णन हो जो किसी युग के सामाजिक जीवन का किसी न किसी रूप में प्रतिनिधित्व कर सकें, जिसमें किसी महत्प्रेरणा से अनुप्राणित होकर किसी महान् ध्येय के लिए किसी महत्त्वपूर्ण, गम्भीर अथवा रहस्यमय और आश्चर्योत्पादक घटना या युग विशेष के सम्पूर्ण जीवन के विविध रूपों, पक्षों, मानसिक अवस्थाओं और कार्यों का वर्णन और उद्घाटन किया गया हो और जिसकी शैली इतनी गरिमामय एवं उदात्त हो कि युग-युगान्तर तक महाकाव्य को जीवित रहने की शक्ति प्रदान कर सके।" इस रूप में 'मूकमाटी' को महाकाव्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। बल्कि यह वह महाकाव्य है जिसे पढ़कर महाकाव्य की भाषा में कुछ और जोड़ना अपेक्षित लगेगा। यह महाकाव्य की परिभाषा के अन्तर्गत होते हुए भी परिभाषातीत है।
'मूकमाटी' के काव्यरूप पर संक्षिप्त चर्चा के बाद उन अलक्षित स्वरूपों पर स्फुट विचार किया जाना जरूरी है जो इस महाकाव्य के लक्ष्य को उत्कर्ष तक पहुँचाते हैं ।
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महाकाव्य का बीजमन्त्र एकमात्र अक्षर 'भी' है। 'भी' वाक्य को जोड़ने की क्रिया करता है। अलग से इसका कोई अर्थ नहीं। ऐसे महत्त्वहीन संयोजित अक्षर को महाकाव्य की आत्मा बना देना केवल आचार्य विद्यासागरजी ही कर सकते हैं और वह भी एक द्रष्टा कवि के रूप में । जहाँ न तो आचार्य जैसा गुरुत्व है, न उपदेशक की बोझिल मुद्रा । मैं ज़ोर देकर यह कहना चाहता हूँ कि अकेला 'भी' अक्षर 'मूकमाटी' का सार अंश है, जैसे कि समरस या आनन्द शब्द 'कामायनी' के सार अंश हैं। 'मूकमाटी' महाकाव्य में यह 'भी' बीजाक्षर इतने संयत और सूक्ष्म रूप में गतिमान् है कि लगता है मानों यही इस महाकाव्य का अन्तर्वर्ती नायक हो । केवल एक स्थान पर ही यह प्रकट होता है। जहाँ खण्डदो ‘शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' के अन्तर्गत जब कुम्भ पर कछुवा - खरगोश का चित्र साधक को साधना की विधि बताकर सचेत करता है कि कछुवा धीमी चाल चलकर समय के भीतर अपने गन्तव्य तक पहुँचता है, क्योंकि वह लक्ष्य के प्रति सजग है और खरगोश सावधान होकर अविरल गति से न चलकर रास्ते में सो जाता है। यह प्रमाद ही क्षिप्र गति से चलने वाले खरगोश का परम शत्रु हो जाता है। इस हितोपदेशीय लोक प्रचलित कथा से कविवर विद्यासागरजी ने दर्शक को जो परोसा, वह इस प्रकार है:
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'अब दर्शक को दर्शन होता है - / कुम्भ के मुख मण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का । / ये दोनों बीजाक्षर हैं,