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'मूकमाटी' : काव्य रूप के बहाने स्फुट विचार
प्रो. प्रेमशंकर रघुवंशी
कवि कर्म पर मेदिनी कोश में 'कवेरिदं कार्यं भावो वा' कहा गया है अर्थात् कवि के द्वारा किया जाने वाला | अभिनवगुप्त ने 'ध्वन्यालोकलोचन' में 'कवनीयं काव्यम्' कहा है। काव्य की व्याख्या के लिए जरूरी है कि कवि शब्द के अर्थ को समझा जाए। कवि सर्वज्ञ व द्रष्टा होता है। श्रुति ने भी कवि को "कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः” कहा है । जब कवि मनीषी है, परिभू है और स्वयंभू है, तो वह क्या करता है ? इस प्रश्न का सीधा उत्तर यह है कि वह काव्यकर्म करता है । कवि के इस कर्म को 'काव्य संसार' कहा गया है।
काव्य एक कला है जिसमें अनुभूति अनिवार्य तत्त्व है। क्रोचे स्वीकारता है कि काव्य अभिव्यंजना का एक मात्र अनिवार्य उपादान अनुभूति है। बल्कि यूँ कहना होगा कि अनुभूति ही व्यंजना है। काव्य कला का असली रूप कवि के अन्त:करण का वह सौन्दर्य बोध है, जिसमें वह कलात्मक ऊँचाइयों की ओर निरन्तर अग्रसर होता रहता है। आधुनिक सन्दर्भ में काव्य के बाह्य रूप से सम्बद्ध कौशल को काव्य कला कहा है । काव्यानुभूति के स्थिरीकरण के लिए जिन प्रतीकात्मक उपादानों को प्रयुक्त किया जाता है, वे काव्य कला का निर्माण करते हैं । काव्य कला वह रचनात्मक कौशल है जहाँ कवि के प्रयोजन के अनुरूप कविता यथोचित कल्पनामय, भावनामय और विचारमय होती है। वस्तुत: काव्य कला का व्यंजना व्यापार व्यापक होता है, जहाँ रस पोषण के लिए कवि कई प्रकार की युक्तियों का प्रयोग करता
है।
काव्य कला का अन्य तत्त्व शब्द-चित्र है। काव्य में प्रयुक्त व्यक्ति अथवा प्रसंग के सजीव चित्र श्रेष्ठ काव्य को सौन्दर्य प्रदान करते हैं। इसमें सूक्ष्म मानसिक चित्र भी शामिल हैं। 'मूकमाटी' में ऐसे अनेक मानसिक चित्रों का रचाव जो जीवन के सूक्ष्म रूप के दर्शन कराने में सक्षम हैं।
काव्य कला का एक और प्रमुख अंग पुनरुक्ति है । यह प्राय: काव्य दोष के अन्तर्गत आता है। 'मूकमाटी' में पुनरुक्ति की व्याप्ति है किन्तु यह किसी एक जगह भी काव्य को दुरूह या अतिरंजित नहीं करती, बल्कि व्यंजित विषय को और अधिक कल्पनामय, और अधिक भावनामय और विचारमय बनाकर मूर्त कर देती है। पुनरुक्ति का ऐसा कौशल शायद ही किसी महाकाव्य में मिले ।
काव्य कला के अन्तर्गत हर काल में नई-नई पद्धतियों का निर्माण होता रहा है, जिससे उस काल की काव्य सज्जा विन्यस्त होती रही । काव्य के जो रूप आज तक विश्व साहित्य में उपलब्ध हैं उन्हें प्रबन्ध और मुक्तक काव्य के अन्तर्गत मोटे तौर पर देखा-परखा जाता है । यह भी मान्य होता रहा है कि काव्य कला का सर्वाधिक मर्यादित रूप महाकाव्य और खण्डकाव्य में सुरक्षित है और उसका स्वच्छन्द रूप मुक्तक काव्य में । 'मूकमाटी' में प्रबन्ध की मर्यादित कसावट और भावों का स्वच्छन्द अभिव्यंजना व्यापार एक साथ देखा जा सकता है। बल्कि कुछ और भी, जो प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्य की सीमाओं को लाँघकर अपना अलग काव्यलोक निर्मित करता है । इसलिए 'मूकमाटी' एक ऐसी काव्यकृति है जिसे महाकाव्य और मुक्तक काव्य के अन्तर्गत हू-ब-हू देखने-परखने पर पाठक कई जगह दचका खा सकता है । इसके बावजूद 'मूकमाटी' की गणना महाकाव्य में ही करना युक्तिसंगत होगा। वैसे जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' का प्रत्येक सर्ग अपने आप में प्रगीत है किन्तु उसमें कथानक का एक ऐसा अन्तःसूत्र है जो आद्योपान्त बारीकी से मनु और श्रद्धा के इर्द-गिर्द अवस्थित होकर प्रत्यभिज्ञानित होता है । वहाँ भी दर्शन प्रमुख है बल्कि वही उदात्त नायक के रूप में मनु के मन: संघर्ष से आकार ग्रहण करता हुआ चरम परिणति तक जाता है । प्रसाद ने आधुनिक युग बुद्धिवादी दुष्परिणाम पेश करने के लिए शतपथ ब्राह्मण में वर्णित जलप्लावन वाले एक आख्यान का सहारा लिया है । 'मूकमाटी' भी दर्शन पर आधारित महाकाव्य है, जिसका नायक जैन दर्शन है और जो स्याद्वाद की शैली में माटी और कुम्हार के माध्यम से चार खण्डों में पूरे कथानक को प्रस्तुत करता है । मजा यह है कि कथा के मूल पात्र कुम्हार