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________________ " अब धन- संग्रह नहीं, / जन-संग्रह करो ! और / लोभ के वशीभूत हो / अंधाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो / अन्यथा, / धनहीनों में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं ।” (पृ. ४६७-४६८) मूकमाटी-मीमांसा :: 145 समाज में व्याप्त क्षोभ, असन्तोष एवं अराजकता से कवि बहुत चिन्तित है । जब भी अयोग्यता को आदर दिया जाएगा तथा योग्यता का अनादर होगा, अराजक स्थिति उत्पन्न होगी ही : "हे भगवन् ! / यह कैसा काल आ गया, / क्या असत्य शासक बनेगा अब ? क्या सत्य शासित होगा ? / हाय रे जौहरी की हाट में आज हीरक-हार की हार ! / हाय रे, काँच की चकाचौंध में मरी जा रही - / हीरे की झगझगाहट !" (पृ. ४६९-४७०) फिर, “आतंकवाद की जय हो । / समाजवाद का लय हो” (पृ. ४७४) के गलत प्रचार, व्यवहार से भी कवि क्षुब्ध है । परन्तु, कवि निराशावादी नहीं, आशावादी है । वह पराक्रम एवं पौरुष का पक्षधर है। परिश्रम पर पूरा विश्वास है उसे : “किसी कार्य को सम्पन्न करते समय / अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है ।” (पृ. १३) हाँ, एक बात की याद दिलाना कवि नहीं भूलता कि लोभ-मोह में पड़कर अपने व्यक्तित्व को कभी नहीं भुला देना चाहिए : " किन्तु, सुनो ! / भूख मिटाने हेतु / सिंह विष्ठा का सेवन नहीं करता' (पृ. १७१) । विद्यासागर मुनिजी धरती और सन्त की प्रकृति को अपनाने पर बल देते हैं, दूसरों के हित के लिए कष्टसहिष्णु बनने की प्रेरणा देते हैं, पर सदा अपने व्यक्तित्व के अनुरूप आचरण कर ही : " सर्वंसहा होना ही / सर्वस्व को पाना है जीवन में / सन्तों का पथ यही गाता है" (पृ.१९०) । आज के जीवन में चारों ओर दिशाहीनता ही दिशाहीनता है- शिक्षा, धर्म, नीति, राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति सब कुछ गलत दिशा की ओर अग्रसर है । अस्तु, आवश्यकता है शास्त्र सम्मत नैतिक मार्गों पर चलने की, जिससे मनुष्य आत्मसंयमी हो और वह भटकाव को छोड़कर अपने सही गन्तव्य तक पहुँच जाए : “सही दिशा का प्रसाद . ही/सही दशा का प्रासाद है" (पृ. ३५२) । निष्कर्षतः, 'मूकमाटी' आध्यात्मिकता की पावन पीठिका पर सन्तुलित भौतिकता का प्रतिष्ठापन, मोक्षदर्शन के परिप्रेक्ष्य में मानव जीवन का शाश्वत स्पन्दन है यह श्रेष्ठ सांस्कृतिक महाकाव्य । पृष्ठ १० और सुनो !-- अब से कब तक ? O
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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