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मूकमाटी-मीमांसा :: 149
सम्मोहित करता है, आदि आदि बातें मन में थीं। एकाध बार विद्यासागरजी से भेंट भी हुई किन्तु भीड़ की भेंट कोई भेंट नहीं होती, सो उनसे कोई साहित्यिक चर्चा नहीं हो सकी । वहीं ऐलक अभयसागरजी से भेंट हुई और इस सन्त के साहित्यिक ज्ञान ने मझे प्रभावित किया। उन्होंने मझे विद्यासागरजी का चार खण्डों में प्रकाशित समग्र साहित्य दिया और आग्रह किया कि मैं 'मूकमाटी' पर लिखू । 'मूकमाटी' इसके पूर्व सरसरी तौर पर पढ़ चुका था। काफी दिनों तक सोचता रहा कि क्या लिखू, तभी मेरे मित्र अनूप बजाज एवं राजेन्द्र जैन ने बताया कि आर्यिका प्रशान्तमतीजी हरदा में चातुर्मास कर रही हैं और प्रतिदिन 'मूकमाटी' की व्याख्या कर रही हैं। मेरे लिए यह प्रेरक सुयोग था । उन्हें लगातार पाँच-सात दिन सुनने गया। फिर नहीं गया, क्योंकि वे 'मूकमाटी' को एक जैन साध्वी के रूप में समझा रही थीं। वहाँ 'ही' ही प्रमुख था और मेरे लिए 'भी', क्योंकि मेरी यह मान्यता तो स्पष्ट थी ही कि 'मूकमाटी' एक आध्यात्मिक ग्रन्थ के साथ एक श्रेष्ठ काव्यकृति भी है और यही श्रेष्ठता मुझे उसके अध्ययन को प्रेरित कर रही थी। यह सब लिखने के पूर्व उसे फिर से पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते उसके काव्यरूप तथा उसके काव्यवैभव पर नोट्स लेता रहा । इन्हीं बेतरतीब नोट्स को आबद्ध करने का प्रयास किया है । इस मायने में आप इसे एक पाठक की प्रतिक्रिया ही समझें।
भी' के काव्य सामर्थ्य पर संक्षिप्त चर्चा के बाद दूसरी बात जो इस महाकाव्य में विलक्षण है, वह है इसकी अभिधामूलक शक्ति । आचार्य मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में लिखा है : “स मुख्योऽर्थस्तत्र मुख्यो व्यापारोऽस्याभिधोच्यते" यानि कि वह साक्षात् सांकेतिक अर्थ जिसे मुख्य अर्थ कहा जाता है, उसका बोध कराने वाले व्यापार को अभिधा व्यापार या शक्ति कहते हैं । इस शक्ति के द्वारा रूढ़, यौगिक और योगरूढ़ रूप इन तीन शब्दों का अर्थबोध होता है। अभिधा द्वारा पाठक के मन पर शब्द के अर्थ का सीधा प्रक्षेपण होता है । यदि काव्य के रूपों को शब्द शक्ति के आधार पर देखा जाए तो नैरॅटिव और कथात्मक होने के कारण महाकाव्य की अभिव्यक्ति अधिकतर अभिधामूलक शक्ति द्वारा सम्पन्न होती है, किन्तु लक्षणा और व्यंजना (शक्ति) जो काव्यदीप्ति प्रदान करती हैं, उसका आनन्द ही कुछ और है । वहाँ एक-एक शब्द और एक-एक वाक्य अपनी अनेकानेक ध्वनियाँ तरंगित करते हुए कई-कई अर्थों तक ले जाने में समर्थ होते हैं। कविवर विद्यासागर ने अभिधा का मार्ग ही अपनाया और इसी शक्ति को जहाँ जरूरत पड़ी वहाँ लक्षणा भी बनाया और व्यंग्यार्थी भी । अभिधा से विद्यासागरजी ने काव्य संवर्द्धन के सभी काम लिए, मानों उसे दीक्षित कर अपने काव्यसंघ में शामिल कर लिया हो । अभिधा शक्ति जन-जन के मन में प्रवेश करती है। चाहे सभा में बोलना हो अथवा सत्संग करना या जटिल से जटिल सूत्र को हरेक के लिए आसान करना - यह सब इसी शक्ति से सम्भव होता है। काव्य में यह शक्ति तीसरे दर्जे की मानी जाती है। इसे पहले दर्जे पर लाकर प्रतिष्ठित करने के लिए कवि में पुरुषार्थ चाहिए। चाहे जो यह नहीं कर सकता है। विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' में अभिधा शक्ति को अपने अभिव्यंजना व्यापार से इस कदर समर्थ बना दिया है कि लक्षणा और व्यंजना शक्ति उसके सामने पानी भरने लगती हैं बल्कि उन्होंने तीनों शक्तियों के त्रैलोक्य को एक लोक में ही परिणत कर दिया । यह है कविवर विद्यासागरजी की अभिव्यंजना का अपनापन ।
सहज होना बहुत कठिन है । जो कठिन से कठिनतर प्रयोगों द्वारा सहज की खोज करते हैं, उन्हें आचार्य विद्यासागरजी ने बता दिया कि सहज होना बहुत आसान है । बशर्ते कलात्मक वक्रता न हो । तुलसी ने लिखा है : “चलइ
बक्रगति. जद्यपि सलिल समान।" अरे भाई! जब वस्त सम्पदा (विषय वस्त या वर्ण्य वस्त) समान है तो वहाँ वक्र गति से जोंक चाल चलने की क्या आवश्यकता है ? उनकी अभिधा शक्ति त्रिमुखी है, जहाँ उसके मूल अभिधेयार्थी मुख के साथ लक्ष्यार्थी और व्यंग्यार्थी मुख भी हैं। तीनों मुखों का पोषक वदन एक ही है । अभिधा से लक्षणा और व्यंजना व्यापार का काम विद्यासागरजी किस तरह लेते हैं, उसकी दो-एक बानगी देखें:
0 “कम-से-कम इसे सुन तो लो!/.."फिर तोलो !" (पृ. ३७५) 0 “जीवन का, न यापन ही/नयापन है/और/नैयापन !" (पृ. ३८१)
जोंक जल