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मूकमाटी-मीमांसा :: 125 फैलाकर क्षति पहुँचाता है । इसी दलदल के सन्दर्भ को लेकर कवि वर्तमान दलगत राजनीति के दल-दल पर प्रहार करता है । वर्तमान राजनीति का आधार धन और सत्ता बनकर रह गया है। इससे बचने के लिए मन की दृढ़ता आवश्यक है । विमुखरित हो उठा है सागर पर छाई पहली बदली को देखकर । प्रकृति वर्णन में कवि की भाव विभोरता द्रष्टव्य है : " दधि-धवला साड़ी पहने / पहली वाली बदली वह / ऊपर से साधनारत साध्वी-सी लगती है।” (पृ. १९९)
धरती की ही भाँति नारी की सहनशक्ति, उसका प्रेम, वात्सल्य, धर्म परायणता, ममता, उसके मातृत्व आदि की चर्चा कवि ने विशद एवं गहन भाव से की है। नारी उपेक्षिता या अनुचरी नहीं है। वह तो सहचरी, ममता का सागर है । विविध अवस्थाओं, रूपों में वह पुरुषों की सह- साधिका रही है । कवि के विशाल दृष्टिबोध का परिचय नारी वर्णन में परिलक्षित है :
“अपने हों या पराये,/ भूखे-प्यासे बच्चों को देख
माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता/ बाहर आता ही है उमड़ कर, इस अवसर प्रतीक्षा रहती है - / उस दूध को ।" (पृ. २०१ )
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आज का स्वार्थमय मानव इसी प्रतिष्ठा को धन के हेतु बेच रहा है। स्त्रियों को कुपथ पर ले जाने वाला पुरुष ही है । कवि ने 'नारी' उसे माना है जिसका कोई शत्रु ना हो। फिर नारी के विविध पर्यायवाची एवं रूपों - महिला, नारी, अबला, स्त्री, सुता, दुहिता, जननी, माता, अंगना आदि शब्दों के अर्थ, भावार्थ बड़े ही ज्ञानपूर्ण तथा अर्थपूर्ण रूप से किए हैं । कवि का बुद्धि चातुर्य शब्दों की नए सन्दर्भों में की गई व्याख्या में दृष्टिगत होता है । पत्नी का पति के जीवन में आना भोग के लिए नहीं अपितु उपासना में मदद रूप बनने, काम को संयत बनाने आदि के साथ धर्मोपार्जन के लिए ही होता है :
" पुरुष की वासना संयत हो, / और / पुरुष की उपासना संगत हो, यानी काम पुरुषार्थ निर्दोष हो, / बस, इसी प्रयोजनवश वह गर्भ धारण करती है ।" (पृ. २०४ )
यहाँ पुरुष से तात्पर्य जहाँ पतिवाचक है, वहीं दूसरा पुरुष शब्द परमात्मा की उपासना का परिचायक है । इसी खण्ड में कवि एक चमत्कार का आयोजन भी करते हैं । कुम्भकार के आँगन में मुक्ताओं की वर्षा होती है। सभी आश्चर्यचकित
राजा भी लोभ के वशीभूत हो मुक्ताओं को लेना चाहता है। उसके सेवक ज्यों ही मुक्ताओं को उठाना चाहते हैं, तभी नभ-गर्जना होती है। इस नभ-गर्जना में कवि श्रम की महत्ता का प्रतिपादन करता है। श्रम के बिना धन की प्राप्ति चोरी है, घूँस ही है :
" परिश्रम के बिना तुम / नवनीत का गोला निगलो भले ही,
कभी पचेगा नहीं वह / प्रत्युत, जीवन को खतरा है !" (पृ. २१२ )
राजा की मण्डली फिर भी मोती बटोरना चाहती है। तभी उन्हें बिच्छू के डंक से लगते हैं । फलत: वह बेहोश हो जाती है । राजा भी कीलित हो जाता है। इस दुर्घटना से कुम्भकार दुखी है कि उसके आँगन में ऐसा घटित हुआ । राजा को चेतना आते ही कुम्भकार उससे क्षमायाचना करता है । मोतियों को स्वयं बोरियों में भरता है । इस चमत्कार से सभी प्रभावित हैं । कुम्हार का श्रम सभी को चेतनामय बनाता है। यह था श्रम और सत्य का महत्त्व । कवि मर्यादा की महत्ता