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124 :: मूकमाटी-मीमांसा
तप वर्षा यानी सच्चे सुख का कारण बनता है। मनुष्य का जीवन नदी-सा निर्मल व प्रवाहित रहे, यही उसकी सार्थकता है। जीवन में यौवन-वसन्त भले ही हो, पर वह पतझर-सा झर भी जाता है। इसलिए संयम रसना पर रस-ना रहे, तभी सम्भव होता है।
पुन:, कवि उपाध्याय की भूमिका का निर्वाह कर संसार के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तत्त्व, उनकी महत्ता, संसार की रचना, परिवर्तन आदि का तात्त्विक बोध सरल अर्थों में प्रस्तुत करता है :
“आना, जाना, लगा हुआ है/आना यानी जनन-उत्पाद है
जाना यानी मरण-व्यय है/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है ।" (पृ. १८५) मनुष्य स्वयं का निर्माता एवं विनाशक है :
“अपना स्वामी आप है/अपना कामी आप है।" (पृ. १८५) इन सरल शब्दों द्वारा जीवन की व्याख्या कर गागर में सागर भर दिया है।
दूसरे खण्ड में वास्तव में कवि से अधिक विद्यासागर आचार्य ही अधिक रहे। जैन दर्शन के विविध पहलुओं पर उनकी क़लम मार्गदर्शक-पथदर्शिका बनी है । माटी और शिल्पी का वार्तालाप, उसमें प्रतिपादित सिद्धान्त, उनकी व्याख्या द्वारा आचार्य हम संसारी जीवों को मुक्ति पथ की ओर अग्रसर होने, सच्चे मनुष्य बनकर मानवता को सही अर्थों में समझने का बोध देते हैं।
कृति के तीसरे खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' में धर्म और जीवन के महत्त्व का प्रतिपादन हुआ है। कवि धरती के गुण वैतालिक की भाँति गाता है । यहाँ कवि धरती का गायक ही बन गया है। धरती तो माँ है । माँ की ममता, त्याग, वात्सल्य, सहनशक्ति, उपयोगिता आदि गुणों के गीत कवि ने अपने मुक्त कण्ठ से गाए हैं। लगता है धरती की गन्ध आपके रोम-रोम को आह्लादित करती है। धरा का गायक कवि और सिद्धान्त तत्त्वों का निरूपक आचार्य दोनों में जैसे होड़-सी लगी है। तभी तो धरा के सौन्दर्य के साथ-साथ वह मानवता एवं जैन दर्शन के सिद्धान्तों को भी पिरोता चलता है । पर-स्वहरण वृत्ति उसे निन्दनीय लगती है :
“पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है । यह अति निम्न-कोटि का कर्म है/स्व-पर को सताना है,
नीच-नरकों में जा जीवन बिताना है।" (पृ. १८९) कवि सन्तों की सहनशक्ति की तुलना धरती से करता है । जो सहता है, वही कुछ दे पाता है, वही कुछ पाता है। कवि प्रकृति के सूर्य और चन्द्र की महिमा के गुणगान में चन्द्र की बदली नीयत को वर्तमान छू सके, अत: उसके साथ तौलकर आज की इस अधम वृत्ति पर प्रहार करने से नहीं चूकता :
"यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है ।" (पृ. १९२) परोपकारिणी धरती सीप में पड़ी बूंद को मोती का रूप प्रदान करती है। उसका गोताखोरों से रक्षण करती है। उसकी गोद में पली मुक्ता तभी तो कृष्ण के कण्ठ की शोभा बनी जो मुरलीधर को भाई । वह सागर की ही नहीं, अनेक मुक्ताओं की भी जननी है। चन्द्रमा अपनी करतूतों से सागर द्वारा बादलों के माध्यम से जल वृष्टि करा कर एवं दलदल