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________________ 'मूकमाटी': काव्य और अध्यात्म का संगम घाट प्रो. (डॉ.) प्रेम सुमन जैन कवि और ज्ञानी सन्तों द्वारा जब भी सत्य के उद्घाटन और यथार्थ के दर्शन के प्रयत्न किए गए तो सर्वव्यापी और सरल स्वरूपी माटी उनकी आधारशिला बनी । चाहे वैदिक ऋषियों की अनुभूतियों का प्रतिनिधित्व पृथ्वीसूक्त के द्वारा हुआ हो या लोक कवि शूद्रक ने जन-जीवन को उजागर करने के लिए मिट्टी की गाड़ी' नाटक लिखा हो अथवा भगवान् महावीर को नियति और पुरुषार्थ का विवेचन करने के लिए कुम्भकार सकडाल पुत्र की दुकान के मिट्टी के बर्तनों का उदाहरण देना पड़ा हो - सर्वत्र मिट्टी ही रूपक बनी है परमार्थ दर्शन का । आचार्यप्रवर, काव्यप्रवीण सन्त विद्यासागर द्वारा प्रणीत 'मूकमाटी' काव्य का ताना-बाना भी नाना रूपधारी माटी के इर्द-गिर्द बुना गया है, जो काव्य और अध्यात्म में डूबने के लिए पवित्र संगम घाट बन गया है। _ 'मूकमाटी' काव्य की परिभाषाओं से परे दार्शनिक अनुभूतियों की काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण की ललित रचना है। यह मनोरंजन की कृति नहीं, मन-भंजन की टाँकी है, जो मन के पार आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने का मार्ग प्रशस्त करती है । यह सुखाभास नहीं, शाश्वत सुख के द्वार तक ले जाने वाला दीपस्तम्भ है । सत् साहित्य की यह बानगी है, क्योंकि स्वयं कवि सन्त ने परिभाषा दी है : "जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है।” (पृ. १११) प्रस्तुत महाकाव्य के चार खण्ड हैं। 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' नामक प्रथम खण्ड में कंकरों से मिश्रित माटी को उसके मूर्त स्वरूप में लाने की बात कही गई है ताकि वह अपना कोमल वर्ण प्राप्त कर सके। यह प्रतीक है-भेद-विज्ञान का। हर पदार्थ अपने मौलिक स्वरूप में आ जाय, जाना जाय- यही धर्म का मार्ग है, कर्तव्य की डगर है। कवि इसी खण्ड में परिचय देता है कई जाने-माने शब्दों की अद्भुत परिभाषा देकर । सन्त की अनुभूतियाँ हैं : 0 "दया का होना ही/जीव-विज्ञान का/सम्यक् परिचय है।" (पृ. ३७) 0 "अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं।" (पृ. १९२) 0 "संयम के बिना आदमी नहीं/यानी/आदमी वही है जो यथा-योग्य/सही आदमी है।" (पृ. ६४) 'मूकमाटी' का दूसरा खण्ड सही दिशा देता है- शब्द, बोध ओर शोध को। ये पर्यायवाची से बन गए हैंश्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र के । शुभ कार्यों के सम्पादन, लोक-हित एवं आत्म-हित के लिए किए गए प्रयत्नों/क्रियाओं से पुण्यार्जन होता है और कषायों की गुलामी से पाप-संग्रह, यही सन्देश इस काव्य का तीसरा खण्ड पाठक को देता है। कवि कहता है : "जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ।" (पृ. १४९) समस्त दु:खों की जड़ भारतीय परम्परा में 'निदान' को माना गया है। कवि ने उसे सरल नाम दिया है- बदले का भाव । इस बदले के भाव से बचना ही, भव-बन्धन से बचना है। आचार्यश्री ने अपने इस काव्य में दर्शन और अध्यात्म
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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