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42 :: मूकमाटी-मीमांसा मानवीकरण की सुन्दर योजना में द्रष्टव्य है :
0 "और/फूली नहीं समाती,/भोली माटी यह/घाटी की ओर ही
अपलक ताक रही है/भोर में ही/उसका मानस
विभोर हो आया।" (पृ. २५-२६) 0 "नवविवाहिता तनूदरा,/यूंघट में से झाँकती-सी...
बार-बार बस,/बोरी में से झाँक रही है/माटी भोली !" (पृ. ३०-३१) कहीं-कहीं दार्शनिक तथ्यों को सूत्रमयी उक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसमें प्रज्ञा एवं सौन्दर्य दृष्टि का अद्भुत संयोग है :
- "अति के बिना/इति से साक्षात्कार सम्भव नहीं
और/इति के बिना/अथ का दर्शन असम्भव !" (पृ. ३३) - "करुणा की कर्णिका से/अविरल झरती है
___ समता की सौरभ-सुगन्ध ।” (पृ. ३९) जैन दर्शन की झलक भी प्रसंगानुसार दृष्टिगोचर होती है यद्यपि वह काव्य की विषय वस्तु की सीमा के भीतर ही समाविष्ट है :
“ 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है
'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक ।" (पृ. १७२) ___ धरती की प्राकृतिक सुषमा के चित्रण में वर्णमैत्री के लालित्य एवं माधुर्य की छटा शिल्पी कवि की शब्दसंगीत-साधना की परिचायिका है :
"कलियाँ खुल खिल पड़ी/पवन की हँसियों में, छवियाँ घुल-मिल गईं/गगन की गलियों में,
नयी उमंग, नये रंग/अंग-अंग में नयी तरंग।" (पृ. २६३) समग्रतः 'मूकमाटी' धरती की संवेदना का प्रतीकात्मक महाकाव्य है जिसमें मानवता की विजययात्रा का लोकमंगलकारी सन्देश अपूर्व रागबोध एवं मधुमती प्रज्ञा के कलात्मक वैभव के साथ मुखर हुआ है।
___ इस प्रकार अपनी विशिष्ट भावभूमि पर अनेक जीवन मूल्यों, उदात्त आदर्शों, विश्वजनीन सन्देशों, जीवन्त परिवेशों, मौलिक उद्भावनाओं, उत्प्रेरक अवधारणाओं एवं मार्मिक रहस्यों से समृद्ध 'सावित्री' तथा 'मूकमाटी' अध्यात्मपरक प्रतीकात्मक भारतीय महाकाव्य परम्परा में लोकमंगलकारिणी कालजयी कृतियों के रूप में प्रतिष्ठित हैं।