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मूकमाटी-मीमांसा :: 41 भाषा-शैली में प्रस्तुत किया गया है, वह प्रबुद्ध महाकवि की व्यापक जीवन दृष्टि तथा जनमनरंजिनी कारयित्री प्रतिभा का परिचायक है।
'मूकमाटी' एक प्रतीकात्मक महाकाव्य है जिसमें धरती के रजकण की जीवनगाथा ‘मंगल घट' के निर्माण की प्रक्रिया के माध्यम से वर्णित है । उसकी इस गाथा में जड़ जगत् की अचेतना- अवचेतना की नाना गुत्थियों को एक अभिनव चिन्मय प्राणवत्ता के साथ उजागर करते हुए इतिहास की स्थूल गतिविधियों और प्रकृति की सूक्ष्म परिस्थितियों का सांकेतिक उद्घाटन अनेक नवीन बिम्बों एवं प्रतीकों के सहारे हुआ है । आधुनिक जीवन के भय, सन्त्रास एवं विसंगतियों पर तीव्र व्यंग्य करते हुए जन-जन में अभय, सन्तोष एवं समरसत्ता का आदर्श प्रतिष्ठित करने वाला प्रस्तुत काव्य मूकमाटी की अन्तर वेदना, प्रगाढ़ पीड़ा, कठोर तपस्या, तीव्र करुणा एवं सुकुमार अहिंसा के विविध भावस्तरों को मुखर करते हुए शाश्वत सत्य पर आधारित तथ्यपरक यथार्थ की नवीन व्याख्या करता है और प्रेय साधन द्वारा श्रेय साध्य की ओर अग्रसर होने का दिव्य सन्देश देता है।
___ शिल्प-सौन्दर्य के माध्यम से अव्यक्त सत्ता के रहस्य की वाङ्मयी अभिव्यक्ति में अनेक गूढ़ एवं अटपटी अर्थभंगिमाओं की संश्लिष्ट योजना कवि की उर्वर उद्भावना शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है । महाकाव्य के अंगी रस के रूप में शान्त रस का निर्वाह हुआ है, जिसकी सम्पुष्टि हेतु अनेक अन्य रसों की सांकेतिक भावस्थितियों का समावेश यत्रतत्र हुआ है। काव्य का मूल स्वर घटनापरक न होकर चेतनापरक रहा है, अत: बाह्य व्यापारों के स्थान में अन्तर अवधानों का संचरण ही प्रबल रहा है।
'मूकमाटी' की संक्षिप्त कथावस्तु को चार खण्डों में प्रस्तुत किया गया है जिनके शीर्षक एवं नामकरण मनीषी स्रष्टा के नैतिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दायित्व बोध के द्योतक हैं :
___ खण्ड १ - 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ, खण्ड २- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, खण्ड ३- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन, खण्ड ४- ‘अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' ।
प्रथम खण्ड में कंकर मिश्रित वर्णसंकर माटी के परिशोधन एवं अपनी सहज सुकुमार प्रकृति का वर्ण-लाभ वर्णित है । द्वितीय खण्ड में शब्द, अर्थ, संगीत एवं रस की तात्त्विक शोधपरक नवीन उद्भावनाएँ अद्भुत संश्लिष्ट वर्णयोजना के साथ अंकित हैं। तृतीय खण्ड में माटी की विकास यात्रा के माध्यम से पुण्य-पाप की मन:स्थितियों तथा कर्मचक्र के दर्शन एवं विज्ञान को नूतन भाव भंगिमाओं के साथ अवतरित किया गया है । चतुर्थ खण्ड अन्य खण्डों की भाँति मात्र भावपरक न होकर घटनापरक भी है जिसमें शिल्पी कुम्भकार परिपक्व कुम्भ को श्रद्धालु नगरसेठ के सेवक के हाथों में आहारदान हेतु पधारे हुए गुरु के पाद-प्रक्षालन एवं तृषा-तृप्ति के अर्थ देता है और सेवक द्वारा सात बार बजाने पर कुम्भ में सात स्वर ध्वनित होते हैं जिनके माध्यम से अनेक नई नैतिक एवं आध्यात्मिक अर्थच्छवियों की अभिव्यंजना हुई है । मनीषी कवि की सूझबूझ की मौलिकता दर्शनीय है :
"सारे गम यानी/सभी प्रकार के दुःख प" "यानी ! पद-स्वभाव/और/नि यानी नहीं,
दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता।” (पृ.३०५) माटी के कलश को सम्मानित देख कर उद्विग्न 'स्वर्ण कलश' का उत्पात धन और आतंकवाद रूप आधुनिक युग की दो प्रमुख विघटनकारी शक्तियों के अकाण्ड ताण्डव का प्रतीक है। सेठ के क्षमाभाव से आतंकवादियों के हृदयपरिवर्तन की घटना अन्तत: नैतिक एवं आध्यात्मिक शक्ति के विजय के प्रति कवि की आस्था की द्योतक है।
चिन्तक स्रष्टा के भावबोध में कवि-हृदय की रागात्मक संवेदना यत्र-तत्र मनोरम बिम्ब विधान एवं सटीक