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________________ 1 मूकमाटी-मीमांसा :: 17 कविता रचना को नया आयाम देने वाली एक अनुपम कृति है । आचार्य श्री विद्यासागरजी की काव्य प्रतिभा का यह चमत्कार है कि माटी जैसी निरीह, पददलित, व्यथित वस्तु को महाकाव्य का विषय बनाकर उसकी मुक्ति वेदना और मुक्ति की आकांक्षा को वाणी दी है... कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंज़िलों की मुक्तियात्रा का रूपक है यह महाकाव्य ।" ऊपर संस्कृत में निबद्ध महाकाव्यों की परम्परा में 'मूकमाटी' को रखकर देखता हूँ तो जहाँ धर्मभावना की प्रेरणा में समानता है वहाँ एक उल्लेखनीय विषमता भी है । विषमता यह है कि परम्पराप्रतिष्ठ क्रमागत संस्कृत महाकाव्यों में जिन नायकों को माध्यम बनाया गया है, उनमें मूल्य उपलब्धि बन चुके हैं जबकि आलोच्यकृति में जिस ‘माटी' को माध्यम बनाकर कथा प्रस्तुत की गई है, उसमें मूल्य सम्भावना हैं । सद्गुरु कुम्भकार माटी की सम्भावनाओं का आकलन करता है और उन्हें अपने ढंग से उपलब्धि का आकार देता है । संस्कृत में 'प्रबोधचन्द्रोदय' आदि कतिपय रूपकात्मक पद्धति में लिखे गए काव्य हैं। पर वह श्रव्य नहीं, दृश्य काव्य है और उसमें भी आद्यन्त 'माटी' की भाँति एक केन्द्रीय माध्यम नहीं है । आचार्यजी ने कथा का माध्यम आसमान से नहीं, धरती से लिया है। 'माटी' धरती का अंश है। परम्पराप्रतिष्ठ काव्यों से इसकी दूसरी अलगाने वाली उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह कृति साधनापरक होने से धर्म और अध्यात्मपरक संकेत रूपकात्मक आवरण में कहीं अधिक व्यंजित करती है । यह अवश्य है कि इस बहाव में वह सामाजिक गतिविधियों और क्रियाकलापों से भी स्थान-स्थान पर अपनी सम्पृक्ति जमकर दिखाती है। परंम्पराप्रतिष्ठ काव्यों में कथावस्तु प्राय: पौराणिक अथवा ऐतिहासिक है। रामायण और महाभारत तो अपना दोहरा रूप रखते हैं । वे काव्य भी हैं और इतिहास भी हैं। शेष में इतिहास और पुराणों की कथा वस्तु है - चाहे 'रघुवंश' या 'कुमारसम्भव' हो या 'किरातार्जुनीय', 'शिशुपालवध' और 'नैषधीयचरित' आदि । 'मूकमाटी' की कथावस्तु कल्पनानीत है, कल्पित. है । लक्षण ग्रन्थों में प्रबन्धकाव्य की वस्तु का प्रख्यात होना आवश्यक माना गया है। 'साहित्यदर्पण'कार ने कहा है : “इतिहासोद्भवं वृत्तमन्यद्वा सज्जनाश्रयम् ।” (छठा परि.) कथावस्तु इतिहास से ली जा सकती है अथवा सज्जनाश्रित होकर अन्यथा प्रकल्पित भी हो सकती है । भामह ने अपने 'काव्यालंकार' में भी 'वृत्तं देवादिचरितशंसि' अथवा 'उत्पाद्य' कहा है । आचार्य हेमचन्द्र ने 'काव्यानुशासन' के अन्तिम आठवें अध्याय के छठे सूत्र में जहाँ महाकाव्य का लक्षण दिया है, वहाँ कथावस्तु के प्रख्यात अथवा कल्पित रूप का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । हाँ, कथावस्तु के सन्धि समन्वित होने की बात अवश्य की है । इस प्रकार कथावस्तु के कल्पित होने का मौन - मुखर विधान है । इसमें कोई शास्त्रीय प्रतिबन्ध आड़े नहीं आता । कथावस्तु सप्रयोजन हो, धर्मार्थकाममोक्ष में से कोई भी प्रयोजन हो, पर हो धर्म या मूल्य समर्पित । भामह कहता है : " चतुर्वर्गाभिधानेऽपि भूयसार्थोपदेशकृत् । " चतुर्वर्ग का अभिधान हो, पर प्राचुर्य उपदेश का हो । 'मूकमाटी' मोक्ष रूप परम प्रयोजन से कथावस्तु का निबन्धन करती है और उपदेश की प्रचुरता का तो कहना ही क्या ? पगे-पगे यह विशेषता मिलेगी । कथाकार हर घटना का दार्शनिकीकरण करता है और गम्भीर उपदेश का अवसर निकालता चलता है। परम्पराप्रतिष्ठ संस्कृत महाकाव्यों में भी उपदेशमय प्रसंग हैं, पर 'वर्णन' तत्त्व की जो प्रचुरता - ऋतु, काल, देश, पर्वत, सन्ध्या, व्यक्ति आदि के वर्णन की जो अतिशयता स्थूल रूप में वहाँ विद्यमान है, यहाँ वह नहीं है । वर्णनात्मकता महाकाव्य का एक तत्त्व ही है, पर आलोच्यकाव्य में वह अभिधात्मक न होकर अप्रस्तुत और व्यंजक बना दी गई है । कहीं से भी ऐसे उदाहरण लिए जा सकते हैं। सारा प्रबन्ध इस तथ्य से आपूरित है । वर्णनात्मकता महाकाव्य के स्वरूप घटकों में से एक है, अत: उसका 1
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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