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________________ 16 :: मूकमाटी-मीमांसा अर्थात् इस संसार में इस समय गुणवान्, बलवान्, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवाक्य, दृढव्रत, सच्चारित्र, लोकमंगलकामी, विद्वान्, समर्थ तथा प्रियदर्शन कौन है ? लोकलोकान्तर की खबर रखने वाले नारद ने कहा कि जिन अनेक गुणों का उन्होंने वर्णन किया है, वे एक व्यक्ति में दुर्लभ हैं, फिर भी एक व्यक्ति इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न है उसमें ये सारी विशेषताएँ एकत्र हैं और उसका नाम लोगों के बीच राम प्रख्यात है । " रामो विग्रहवान् धर्मः " - राम क्या है, धर्म ही शरीरी बन गया है, शरीर धारण करके मूर्त हो गया है । वाल्मीकि ने मानवताविधायक गुणों या मूल्यों की समष्टि को ही राम के माध्यम से अत्यन्त प्रीतिकर आख्यान किया है । 'महाभारत' में दु:खी धृतराष्ट्र को सान्त्वना देने के निमित्त मुनि कणिक ने कहा : ‘“यस्य बुद्धिः परिभवेत्तमतीतेन सान्त्वयेत्” (आदिपर्व १४० / ७४) - जिसकी बुद्धि वर्तमान में परिभूत हो, उसे अतीत के वर्णन द्वारा सान्त्वना देनी चाहिए और उन्होंने राम की ही सारी कथा सुनाई। अतीत पुन: खड़ा नहीं किया जा सकता परन्तु मानव समाज के गतिरोध को दूर करने के लिए उसे प्रेरणास्पद बनाया जा सकता है। 'महाभारत' के अन्त में कहा गया है : "वेदे रामायणे पुण्ये भारते भरतर्षभ । आदौ चान्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ॥ " - वेद हो, रामायण हो या महाभारत - सर्वत्र काव्यों में विग्रहवान् धर्म, जिसे हरि कहा जाता है उसी का आदि, मध्य तथा अन्त में वर्णन है । इस धर्म के विषय में 'महाभारत' कार ने 'स्वर्गारोहण पर्व' में कहा है : " न जातु कामान्न भयान्न लोभात्, धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः । नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये, जीवो नित्यो हेतुरस्यो त्वनित्यः || ” (५/६३) जिस धर्म से लोक का सन्धारण होता है, वही सर्वोच्च मूल है, मानवता का स्रोत है । अत: कामना, भय और लोभ, यहाँ तक कि जीवन के लिए भी उसका परित्याग नहीं होना चाहिए। धर्म ही नित्य है, सुख-दुःख तो अनित्य हैं। अत: धर्म के साकार रूप हरि का ही सर्वत्र यशोगान होता है । समाज या लोक के विधारक धर्मात्मक मूल्यों का ही गान हमारा काव्य करता आ रहा है। राम और रावण, पाण्डव और कौरव क्रमश: धर्म और अधर्म के ही प्रतीक हैं। उनकी कथा अधर्म पर धर्म की विजय है । चाहे अश्वघोष आदि बौद्ध कवियों के 'बुद्धचरित' तथा 'सौन्दरनन्द' आदि काव्य हों अथवा त्रिशष्ठिशलाकापुरुषों को आधार बनाकर लिखे गए जैन कवियों के काव्य हों या कि कालिदास, भारवि, माघ तथा श्रीहर्ष के 'रघुवंश', 'कुमारसम्भव', 'किरातार्जुनीय', 'शिशुपालवध' एवं 'नैषधीयचरित' हों - सभी प्रेरक धर्मभावना ही है। कारण, इनके नायक मानवमूल्यमय धर्म के साकार विग्रह ही हैं। काव्य ही नहीं, नाट्यशास्त्र में भी नाट्यवेद और नाट्य साहित्य के निर्माण के पीछे लोक मंगल की ही भावना निहित है । देवताओं ने पितामह से लोक की गिरती हुई दशा को देखकर उनके समुन्नयन के निमित्त नाट्यवेद का प्रणयन किया । इसीलिए इसे पंचम वेद की संज्ञा दी गई। उसी नाट्यवेद अनुशासन में भारतीय रचनाकारों ने नाट्य साहित्य की सृष्टि की। निष्कर्ष यह है कि हमारी भारतीय काव्य परम्परा निर्माण का स्रोत मानव के समुन्नयन के निमित्त धार्मिक प्रेरणा ही है। हाँ, वह विशुद्ध सिद्धान्त निरूपक शास्त्र से हटकर तन्मय जीवन का कलात्मक उद्रेखण प्रस्तुत करता है, वह रोचक और प्रीत्याधायक ढंग से अपनी बात कहता के है। धर्मस्रोतस्क भारतीय काव्य परम्परा में जब हम आचार्य विद्यासागर के 'मूकमाटी' महाकाव्य को देखते हैं तो वही मूल प्रेरणा यहाँ भी लक्षित होती है । इस प्रकाशित कृति के आरम्भिक पृष्ठ (फ्लैप ) के इस लेख से मैं सर्वथा सहमत हूँ : “धर्म, दर्शन, अध्यात्म के सार को आज की भाषा एवं मुक्त छन्द की मनोरम काव्य शैली में निबद्ध कर
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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