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6000 “सांच को आंच नहीं" (29602
अस्तु, हमारा जवाब तो स्पष्ट है कि ४५ आगम की संख्या की धारणा पूर्वाचार्यों की विवक्षा विशेष है । हम ४५ आगम सिवाय के आगमों की भी वैसी ही प्रमाणिकता स्वीकारते है । प्रश्न तो आपकी ३२ आगम की धारणा पर होता है क्योंकि आप अन्य आगमों की प्रामाणिकता ही नहीं स्वीकारते है।
प्रश्न-१४ का उत्तर :- हरिभद्रसूरिआदि पूर्वाचार्यों की आगमादि की टीका वगैरह तो आगम रुप ही मानी जाती है, उनकी अन्य स्वतंत्र कृतियां भी उनके सपूत - मंदिरमार्गी समाज में प्रमाण रुप में अत्यंत प्रतिष्ठा को धारण करती है । ग्रन्थ का प्रमाण रुप होना अलग बात है और आगम कोटि में माना जाना अलग बात है। जैसे आपके गुरुओं की धारणाओं को आप प्रमाण रुप में मानते हो, परंतु उनके ग्रन्थों को आप आगम नहीं मानते हो ।
प्रश्न-१५ का उत्तर :- सूर्यप्रज्ञप्ति में मांसविषयक पाठ प्रक्षिप्त है, ऐसा बिना आधार से बेधडक प्ररुपित करना क्या ‘जं अलु तु न जाणेज्जा एवं एअंति नो वए ।' इस दशवैकालिक सूत्र की आज्ञा का भंग करना नहीं कहलाता है ? तथा किसी भी पंथ में ऐसा कोई प्रयोजन भी इससे सिद्ध नहीं होता है, जिसके लिए यहाँ प्रक्षेप की आशंका भी उठाई जा सके । अत: मांस विषयक सूत्र में भी वस्तुस्थिति का प्रतिपादन ही अभिप्रेत लगता है । दुसरी बात ‘मानव भोज्य मीमांसा' में प्रकांड इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी ने आगमों में आते मांस विषयक सूत्रों का वनस्पति वाचक होना निघष्टु आदि शास्त्रों के आधार से सिद्ध किया है । अत: उन सूत्रों को प्रक्षिप्त कहना अनुचित ही है।
प्रश्न-१६ का उत्तर :- आचारांग को आगम क्यों माना जाता है ? ऐसे प्रश्न तो ३२ आगमों में इन आगमों की गिनती करने वाले स्थानकवासी समाज को भी लगता है । इसी तरह के प्रश्न करके लेखक अपने आपको प्रच्छन्न दिगंबर या स्वच्छन्द मतिवाले, इतिहासज्ञ (अज्ञ ?) के रुप में सिद्ध कर रहे है ?
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