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-G900 “सांच को आंच नहीं" 09602 ___अस्तु यह तो प्रासंगिक कथन मात्र था । आचारांग का ८वां अध्ययन नहीं मिलने पर उसे अप्रमाण मानने की कोई बात नहीं आती है । किसी व्यक्ति का कोई अंग कट जाता है, तो क्या वह आदमी अपना व्यक्तित्व खो बैठता है ? गणधररचित सूत्रों के कई अंश विच्छिन्न होने पर क्या उपलब्ध ११ अंग अप्रमाण बन जायेंगे ?
प्रश्न-१७ का उत्तर :- प्रश्नव्याकरण को आगम क्यों माना जाता है ? उसका जवाब यह है कि काल की विषमता एवं जीवों की अयोग्यता को देखते हुए, किसी समर्थ आचार्य ने प्रश्न व्याकरण में से प्रश्नविद्या अदि गंभीर विषयों का संहरण करके काल के अनुरूप अन्य अविरुद्ध बातों को ही बताया नंदीसूत्र में उसके विषय निर्देश के अन्तमें ‘ऐसा प्रश्नव्याकरण की टीका में अभयदेवसूरिजीने खुलासा किया है । 'चरण करण परुवणा आघविज्जइ' के द्वारा, वर्तमान में उपलब्ध, आश्रव-संवर वर्णन का सूचन भी मिलता ही है। इस प्रकार प्राचीन परपंरा से चले आ रहे इस ‘प्रश्न व्याकरण' आगम के लिए समस्त श्वेतांबर परंपरा एकमत ही है।
प्रश्न-१८ का उत्तर :- ४५ आगमों के रचनाकार एवं उनकी रचना के समय के इतिहास संशोधन करने निकले हमारे लेखक को क्या ३२ आगमों का इतिहास उपलब्ध है ?
(१) अगर नहीं है, तो आप उन्हें क्यों मानते है ? ___ (२) और अगर आप ३२ आगमों को भी नहीं मानते हो, (१६, १७ वें प्रश्न से ऐसा स्पष्ट समझ में आता है) तो आप स्वयं ही स्थानकवासी समाज के भी गद्दार रुप में सिद्ध हो गये हो ।
प्रश्न-१९ का उत्तर :- बृहत्संग्रहणी की आगम परिभाषा वाली गाथा हमें मान्य है । ऐसा होते हुए भी ४५ आगम को मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि -
(१) ११ अंग तो गणधर रचित होने से सर्वमान्य है। ____(२) १२ उपांग भी स्थविर (१४ पूर्वधर आदि विशिष्ट ज्ञानी) द्वारा रचित होने से आगम मे सम्मिलित है ।
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