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" सांच को आंच नहीं "
किं स्वेच्छया भणति नेत्युच्यते तं निद्देसो कीरति पुणो । ' (दशाश्रुतस्कन्ध ८वे अध्ययनकी चूर्णि )
इसके द्वारा व्याख्याकारों ने स्पष्ट निर्देश किया है कि यह कल्पसूत्र, ग्रन्थकार भद्रबाहुस्वामी अपने मन से नहीं बता रहे परंतु इसे भगवान ने भी अर्थ ‘पज्जोसवणाकप्पोत्ति वरिसस्तमज्झाता' यानि चातुर्मासिक मर्यादा के नियम वाले इस अध्ययन को अर्थ से बताया था । जरुरी नहीं है कि शब्दशः वर्तमान का सूत्र भगवान के मुख से वैसे ही निकला हो, परंतु अर्थ के उपदेशक तीर्थंकर है । अतः अर्थसे यह सूत्र आ जाता है एवं स्थविरावली भी 'इअ परिकहिया' के निर्देशानुसार आगे बढ़ने से यह ग्रन्थ लगभग १२०० सूत्र का बना इसमें कोई अनुपपत्ति नहीं दिखती है ।
प्रश्न-९ का उत्तर :- कल्पसूत्र में केवल तीर्थंकरों के चरित्र ही नहीं परंतु साधुभगवंतो के आपवादिक आचारों का भी निरुपण है, अत: उसमें गोपनीय बा भी आने से तथा मूलतः कल्पसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध रुप छेदग्रन्थ का विभाग रुप होने से गृहस्थों को सुनाने में प्रायच्छित बताया है ।
प्रश्न-१० का उत्तर :- कल्पसूत्र को मूर्तिपूजक समाज कालिकसूत्र में ही मानता हैं और कालिक सूत्रों के लिए निर्दिष्ट विधि के अनुसार वर्तमान में भी कालग्रहण पूर्वक उसके योगोदहन भी किये जाते है, अत: कालिकसूत्र को उत्कालिक सूत्र कर देने का आक्षेप देने में प्रश्नकार की अनभिज्ञता और जल्दबाजी प्रकट होती है । वर्तमान में गृहस्थों के आगे, दिनमें कल्पसूत्र को, निशीथी भाष्य गाथा ३२२० एवं उसकी चूर्णि के द्वारा निर्दिष्ट अपवाद मार्ग से पढा जाता है ।
'जीवित मक्खी जानकर निगल जाना' ये शब्द तो लेखक की मानसिकता को सूचित करते है । व्यवहार सूत्र में आगमों को नियत पर्याय वालें श्रमणों को ही पढाने की स्पष्ट आज्ञा होने पर भी उन्हें सानुवाद छापकर गृहस्थों को पढ़ाने की प्रवृत्ति करने पर क्या येशब्द लेखक को ही लागु नहीं पड़ते ? प्रश्न- ११ का उत्तर :- निशीथ सूत्र में अपर्युषणा में पर्युषणा का जो
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