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________________ *6000 “सांच को आंच नहीं" (D 9602 ‘पुरिमचरिमाण कप्पो मंगलं वद्धमाणतित्थम्मि इअ परिकहिया जिण गणहराइ थेरावली चरित्तं ।' (निशीथ भाष्य एवं दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति) संभव है कि जब भद्रबाहुस्वामी ने दशाश्रुतस्कन्ध की रचना की, तब ८वें अध्ययन के रुप में पर्युषणा कल्प की रचना की एवं उसमें चातुर्मासिक कल्प की मर्यादानुसार स्थविरावली के वर्णन विभाग में अपने समय तक के आचार्यों का वर्णन किया, बाद में यह ग्रन्थ मौखिक परंपरा से आगे चलता रहा एवं प्रत्येक वाचना के समय में स्थविरावली को क्रमशः आगे बढाकर सुव्यवस्थित किया जाता रहा । देवर्धिगणि के समय में यह ग्रन्थ पुस्तकारुढ कर दिया गया तथा स्थविरावली को तत्काल तक संकलित किया गया एवं उसके बाद में स्थविरावली विभाग वहाँ तक ही पढा जाने लगा । मौखिक परंपरा में स्थविरावली आगे आगे बढती थी, पुस्तकारुढ होने के बाद वह वहाँ पर ही स्थागित हो गयी । पुस्तकारुढ करते समय माथुरी अनुयायी एवं नागार्जुनीय अनुयायिओं में वीर निर्वाण संवत् में मतभेद था । अतः दोनों मतों को ९८० और ९९३ के रुप में लिख दिया गया । (विशेष विस्तार के लिए देखिए पं. कल्याणविजयजी की पट्टावली पराग पुस्तक)। इन सभी बातों में कही पर मूलग्रन्थ में प्रक्षेप की गंध नहीं आती है। परंतु 'इअ परिकहिआ जिण गणहराइ थेरावली चरितं' के द्वारा नियुक्तिकार ने जो स्थविरावली वर्णन करने के लिए सूचन किया है, उसका पालन करना ही समझा जाता है, जो ग्रन्थकार के आशय के अनुकूल ही है और उक्त्त के विस्तार रुप चूलिका के रुप में भी इन संवर्धनों को गिना जा सकता है। __ जैसे अन्य स्थविर कृत अध्ययन भी द्वितीय श्रुतस्कन्धं में चूला रूप से, आचारांग सूत्र से अभिन्न रुप से स्वीकृत किये गये है, उसी तरह पूरा कल्पसूत्र अखण्ड माना जाता है। प्रश्न-८ का उत्तर :- “एतत् न स्वबुद्धया प्रोच्यते किन्तु भगवदुपदेशपारतन्त्र्येण इत्याह....' (कल्प सुबोधिका टीका) . -91
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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