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" सांच को आंच नहीं"
(अ) निशीथ सूत्र दशम उद्देशक (ब) निशीथ भाष्य ३२१८ और (क) उसकी चूर्णि जिसमें 'पज्जोसवणाकप्प' का स्पष्ट पाठ है ।
(३) तथा समस्त श्वेतांबर पंथ में मान्य दशाश्रुतस्कन्ध के मूलपाठों में भी ८वें अध्ययन की शरुआत 'तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पंचहत्थुत्तरे होत्था...' से करके 'जाव भुज्जो भुज्जो उवदंसेड़ त्ति बेमि' के द्वारा 'अथ से इति ही पुरे आठवें अध्ययन के सूत्रों का अतिदेश किया है, अन्यत्र प्रसिद्ध वस्तु काही अतिदेश किया जाता है । अत: 'जाव' शब्द के द्वारा आठवें अध्ययन के सूत्रों के लिए किया गया अतिदेश ही बताता है कि देवर्धिगणि के पहले ही यह आठवां अध्ययन ही पर्युषणा कल्पसूत्र के रुप से अलग अस्तित्व एवं प्रसिद्धि को धारण करता था, जिसके सूत्रों का यहां निर्देश किया गया है, अन्यथा आप 'जाव' शब्द से कौन से सू को ग्रहण करेंगे ?
प्रश्न- २ का उत्तर :- प्रतिष्ठित इतिहास विशेषज्ञ, आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म.सा. (बृहत्कल्प के आमुख में), दलसुख मालवणियां (निशीथ की प्रस्तावना) एवं डॉ. सागरमल जैन (दशाश्रुतस्कन्ध एक अध्ययन) वगैरह तटस्थ, प्रकांड इतिहासवेत्ताओं ने एक आवाज से कहा है कि निर्युक्तियाँ आगम के पुस्तकारुढ होने के बहुत पूर्व रची जा चुकी थी । कहीं-कहीं स्थलों पर भाष्य आदि की गाथाएँ, निर्युक्ति में मिश्रित हो गयी है, जिन्हें स्वयं टीकाकारादि भी पृथक् करने में संदिग्ध थे । ऐसी परिस्थितिओं में अगर निर्युक्ति में नंदीसूत्र का उल्लेख आ गया हो, उतने मात्र से पूरा नियुक्ति साहित्य पू. देवर्धिगणिजी (नंदीसूत्र ) के बाद रचा गया, यह कहना अनुचित है।
स्थानकवासी समाज के सुप्रतिष्ठित मनीषी श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्रीजी ने भी कहा है कि - " यह सत्य है कि वीर निर्वाण की आठवीं नौंवी सदी के पूर्व इनकी रचना हो चुकी थी । (जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पेज ४३६)
निर्युक्तियों की रचना करके भद्रबाहु ने जैन साहित्य की जो सेवा की वह सदा अमर रहेगी । ( वही पृ. ४५५)
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