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G006 "सांच को आंच नहीं" (29602
जैसे १२-१२ वर्षीय भीष्म दुष्कालों के बाद श्रुत संकलना के लिए हुई वाचनाओं में जितना श्रुतज्ञान तत्कालीन आचार्यों के पास था, उसे संकलित करके आगमों को सुरुप प्रदान किया गया था, उसमें तत्काल तक हुइ घटनाओं को भी शायद संकलित किया गया हो, इसलिए श्री स्थानांग सूत्र, श्री औपपातिक सूत्र आदि मूलसूत्रों में ७ निवनवों आदि का उल्लेख पाया जाता है।
इतने मात्र से 'पुरे स्थानांग सूत्र आदि आगमों को अर्वाचीन मानना' क्या श्वेतांबर परंपरा के किसी भी पंथ को मान्य है ? कदापि नहीं, अत: जैसे वहाँ पर समाधान किया जाता है, वैसे प्रभु वीर से चली आ रही आचार्य परंपरा के सपूतों (?) को पूर्वांचार्यों की परंपरा से चली आ रही नियुक्ति के श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामीकृत होने की मान्यता के विषय में समाधान अवश्य प्राप्त हो सकता है।
प्रश्न-३ का उत्तर :- कल्पसूत्र के आदि में नमस्कार मंत्र के विषय में पाठ भेदवाली प्रतें व्याख्याकारों के सामने होगी, अत: व्याख्याभेद प्राप्त होते है । एवं 'नवकार मंत्र' लिपिकर्ता द्वारा किया हुआ मंगल भी हो सकता हो, जो मूलसूत्र के साथ, कालक्रम से अनाभोगादि के कारण जुड़ गया होगा, इतने मात्र से उसे 'प्रक्षेप' कहना उचित नहीं, क्योंकि प्रक्षेप में मूलग्रन्थ में कुछ बढाने की इच्छा होती है।
प्रश्न-४ का उत्तर :- आपने पुछा कि कल्पसूत्र में उस सूत्र व उस अध्ययन के नाम का मुख्य विषय सबसे अंत में है, प्रारंभ में करीब १००० श्लोक प्रमाण वर्णन अन्य है, जबकि नियुक्ति में प्रारंभ से ही मुख्य विषय की व्याख्या है और १००० श्लोक जितने मूल पाठ के लिये केवल एक ६२ वी गाथा में संकेत मात्र है, ऐसा क्यों ? इस में भी कुछ रहस्य हो सकता है क्या?
अब यहाँ विचार करना है कि, नियुक्ति के प्रारंभ में मुख्य विषय की बात बतायी है और १००० श्लोक के वर्णन विभाग को एक ६२ वी गाथा से सूचित किया है यह कहाँ तक सत्य है क्योंकि ८वें अध्ययन की नियुक्ति में पहले पज्जोसवणा शब्द के एकार्थिक शब्द बताकर उनमें से 'ठवणा' शब्द के
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