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"सांच को आंच नहीं"
दूसरी बात यह है कि पहले आगम श्रुति परम्परा से चले आ रहे थे, उन पाठों का संकलन और आकलन आचार्य स्कन्दिल और देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के समय लिपिबद्ध किया गया था । उस समय वे घटनाएँ, जिनका उल्लेख प्रस्तुत आगम में है, वे भविष्य में होनेवाली घटनाएँ भूतकाल में हो चुकी थी । अत: जन-मन में भ्रान्ति उत्पन्न न हो जाय इस दृष्टि से आचार्यों ने भविष्यकाल के स्थान पर भूतकाल की क्रिया दी हो या उन आचार्यों ने उस समय तक की घटित घटनाएँ इसमें संकलित कर दी हों। इस प्रकार की दो - चार घटनाएँ भूतकाल की क्रिया में लिख देने मात्र से प्रस्तुत आगम गणधरकृत नहीं है, ऐसा कथन उचित प्रतीत नहीं होता । "
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( जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ. ९८) अतः ओगमों में सबका विश्वास एकदम उचित ही है । ठीक उसी तरह उक्त लेखक को पर्युषणा कल्प, निर्युक्ति आदि साहित्य के विषय में भी स्वतः समाधान मिल सकते है, जरुरत है केवल पूर्वग्रहों से मुक्त तटस्थ सत्यान्वेषण की भावना की ।
पुछे गये प्रश्नों के उत्तर
प्रश्न १-का उत्तर :- पज्जोसवणा कल्पसूत्र का अलग अस्तित्व कब हुआ ? यह प्रश्न ही सूचित करता है कि आप भी कल्पसूत्र को दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा के रुप में स्वीकार करते है, आपका विवाद केवल उसके पृथक् अस्तित्व को लेकर है, जो कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता है ।
आपश्रीने जो उसके अलग अस्तित्व प्रतिपादक प्रमाण विषय में पुछा था, उसका समाधान यह है ( १ ) समवायांग मूल - सूत्र स्वयं “ कप्परस समोसरणं नेयं” के द्वारा कल्पसूत्र का सूचन करता है एवं टीका में इसका स्पष्टीकरण भी किया गया है ।
(२) दुसरी बात यह कि जिन ग्रन्थों में पर्युषण कल्प का उल्लेख है, उसका सूचन आपके प्रश्न नं. ९ से ही मिल जाता है, वे सूचित ग्रन्थ इस प्रकार है :
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