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*60 “सांच को आंच नहीं” (0902
"मक्खन और द्विदल" की समीक्षा
इस प्रकरण की शुरुआत लेखकश्रीने हरिभद्रसूरि टीका का नाम लेकर की है, परंतु दिये पाठ में से प्रथम गाथा ही उस टीकामें है, आगे का पाठ उस टीका में है नहीं । इस प्रकार अंटसंट पाठ देने पर ऐसे व्यक्ति विश्वस्त कैसे बन सकते हैं ?
टीका में उद्धृत नियुक्ति पाठ में स्पष्ट है कि “संसक्त और असंसक्त पात्र एक व्यक्ति साथ में नहीं रखें, अन्यथा संसक्त के गंध से असंसक्त भी बिगड़ जाएगा । और उसको साथ में रखकर भिक्षाभ्रमण न करें, विराधना होगी।” रसज संसक्त विषयक इस बात से स्पष्ट है कि शास्त्र में पानी-दही नवनीतादि में त्रस जीव संसक्त की ही बात नहीं, अपितु रसज संसक्त की, बात भी आती है । जब कि लेखक त्रससंसक्त के अनेक पाठ देकर रसज संसक्त की बात को ढांकने की कोशिश करते है। . रसज जीव, दही आदि में बताया हुआ काल पुरा होने से, वातावरण से या द्विदलादि मिश्रण से भी हो सकते है । उसका वहां पर स्पष्टीकरण किया नहीं है । ग्रंथकार उस विषय को छुए नहीं है वह उनकी मरजी । विचित्रा सूत्राणां गतिः।
रसज संसक्त दही आदि बताने से, द्विदल से संसक्त दही का ग्रहण भी हो ही जाता है । तथा बृहत्कल्पभाष्य में भी -
'पालंकलट्टसागा मुग्गकयं चामगोरसुम्मीसं । संसज्जइ अ अचिरा तं पि नियमा दुदोसाय ॥६०॥'
इस पाठ के द्वारा कच्चे गोरस (दही आदि) में रसज संसक्ति ही बताई है । तथा 'रसजै संसक्तं तु कांजिकादि सपात्रं त्याज्यम् ।' लेखकने दिये हुए इस पाठमें 'आदि' शब्द से दही आदि का भी ग्रहण हो जाता है। इसलिए लेखक ने 'आदि' शब्द का अर्थ ही नहीं किया है।
संसक्त नियुक्ति एवं बृहत्वकल्पभाष्य में दही के रसज संसक्त होने की
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