________________
"सांच को आंच नहीं "
अभी पाठक स्वयं विचारें अंडरलाइन किये गये टीका के पाठ का अर्थ क्या है, और लेखक ने कैसा घोटाला किया है ! टीका के अधुरे पूर्वपक्ष के पाठ को उठाकर दुसरे स्थान में जोडकर कैसा अनर्थ किया है ?
आगे फिर ११०१ नं. की गाथा की टीका का पाठ उठा लाये और ऐसा आभास कराना चाहते है कि द्रव्यपूजा में विराधना होने से वह त्याज्य है और सामायिकादि प्रवृत्ति ही उपादेय है । परंतु उस गाथा की टीका से भी स्पष्ट अर्थ निकलता है कि, “जो तपसंयम में उद्यत है वह चैत्यादि ( मंदिर - मूर्ति, कुल, गण, संघ, आचार्य, प्रवचन - श्रुत) संबंधी कृत्य का भी विराधक नहीं है (आराधक है) । अर्थात मंदिर - मूर्तिभी आराध्य हैं। आगे लेखक भी इसी का जो भावार्थ बताते है “ अतः संवर सामायिकादि प्रवृत्तियों को छोडकर जो केवल पूजा करके, धर्म कर लिया ऐसे संतुष्ट अमरे बने रहते है, वे वास्तव में उक्त प्रमाण अनुसार अनिपुणमति अर्थात् मूढ बुद्धि है।” इन लेखक के शब्दों से भी पूजा आदि में धर्म है यह स्पष्ट होता है । उसके साथ सामायिकादि भी आवश्यक है । केवल द्रव्यपूजा से कृतकृत्य न बने, भावपूजा. भी आवश्यक है ।
उपर बतायें टीका पाठ के फेरबदल से इनकी पुस्तिका के पृ. ३२ पर लिखें - “ अतः किसी भी प्राचीन आगम या ग्रन्थ या व्याख्याओं को पढने में समझने में उक्त अंग्रेज के समान विवेक की आंखे तो खोल कर ही रखनी चाहिये । अंधे बने रहने में तो धूर्तो की धूर्ताई ही पल्ले पडनेवाली है । क्योंकि जिनका जैसा पड्या स्वभाव जासी जीव सूँ । साँच को कहीं आंच नहीं है । कोई न कोई मार्ग उपाय मिल ही जाता और झुठे को एक झूठ के लिये अनेक (सौ) झूठ करने पडते हैं । फिर भी दुर्भाग्य से बुरी तरह फसकर कभी पकडा भी जाता है” ये शब्द लेखक को बराबर लागु हो जाते है या नहीं पाठक स्वयं निर्णय करें ।
81