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"सांच को आंच नहीं"
अकसिणपवत्तगाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणो दव्वथए कूवदिट्टंतो ॥१९४॥ (भा० ) व्याख्या :- अकृत्स्नं प्रवर्तयतीति संयममिति सामर्थ्याद्रम्यते अकृत्स्नप्रवर्तकास्तेषां, 'विरताविरतानाम्' इति श्रावकाणाम् 'एष खलु युक्त:' एष द्रव्यस्तवः खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् युक्त एव, किम्भूतोऽयमित्याह ‘संसारप्रतनुकरणः’ संसारक्षयकारक इत्यर्थः, द्रव्यस्तव:, आह-यः प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं श्रावकाणामपि युक्त इत्यत्र कृपदृष्टान्त इति, जहा णवाणयराइसन्निवेसे केइ पभूयजलाभावओ तण्हाइपरिगया तदपनोदार्थं कूपं खणंति, तेसिं च जवि तहादिया व ंति मट्टिकाकद्दमाईहि य मलिणिज्जन्ति तहावि तदुब्भवेणं चेव पाणिएणं तेसिं ते तण्हाइया सो य मलो पुव्वओ य फिट्टइ, सेसकालं च ते तदण्णे य लोगा सुहभागिणो हवंति । एवं दव्वथए जइवि असंजमो तहावि तओ चेव सा परिणामसुद्धी हवड़ जाए असंजमोवज्जियं अण्णं च णिरवसेसं खवेत्ति । तम्हा विरयाविरएहिं एस दव्वत्थओ कायव्वो, सुभाणुबंधी भूयतरणिज्जराफलो यत्ति काउणमिति गाथार्थ: ॥ १९४ ॥
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इसका भावार्थ - संयम में असंपूर्ण प्रवर्तक ऐसे श्रावकों को यह द्रव्यपूजा संसार का क्षय करनेवाली है । शंका करते है जो प्रकृति से ही असुंदर है वह श्रावकों को भी युक्त कैसे ? उसके समाधान में कूप दृष्टांत समझना । वह इस प्रकार - नये बसे ग्रामादि में पानी की कमी होने से प्यास को बुझाने हेतु कितनेक लोग कुआँ खोदते हैं । उनकी तृष्णादि बढती है । वे कीचडादि से मलिन होते है, तो भी कुएँ से निकले पानी से उनकी प्यास बुझती है । सदा ई के वक्त लगा मल और पूर्व का भी मल दूर होता है । हमेशा के लिए वे और दुसरे भी लोग सुखी होते हैं । इसी प्रकार द्रव्यस्तव में असंयम होने पर भी उसीसे वह परिणाम शुद्धि होती है, जिससे असंयम से उपार्जित और उसके अलावा दुसरा भी कर्म निखशेष नाश होता है । इसलिए श्रावकों को यह द्रव्यस्तव (द्रव्यपूजा) करना चाहिये ।
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