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________________ "सांच को आंच नहीं " डूबने वाले, तत्कालीन यतियों को अपने आदर्श और प्रेरणा से शिथिलाचार से ऊंचा उठाने को बाध्य करते । " ( पट्टावली पराग पृ. ४६७ से पृ. ४६९) 66 " द्रव्यपूजा - भावपूजा" की समीक्षा इस प्रकरण में लेखक की चौर्यवृत्तिकी हद हुई है । उन्होंने पाठों को तोड-मरोड कर ऐसा उपसाया है, मानो निर्युक्तिकार ने सबके लिए द्रव्यपूजा को गौण किया है । परंतु लेखक ने दी हुई १९३ नं. की नियुक्ति गाथा में स्पष्ट है कि संपूर्ण संयम प्रधान महाव्रतधारी मुनि के लिए ही द्रव्यस्तव विरुद्ध है । क्योंकि उसमें हिंसा होती है, जबकि मुनिको छ: काय जीवों की हिंसा का त्याग है । 'असारता ख्यापनाय आह-अनिउणमई वयणमिणं इत्यादि । श्लोक नं. १९२ की टीका के इस पाठ के साथ, श्लोक नं. १९४ में से “यः प्रकृत्यैव असुंदर स कथं श्रावकाणामपि युक्तः” इस पूर्वपक्ष के पाठ को जोडकर अर्थ का अनर्थ किया है । इसका अर्थ यह निकलता है (द्रव्यपूजा की) असारता बताने के लिए अनिपुणमति वाले का ( द्रव्यस्तव भी अनेक अपेक्षाओं से बहुत गणकारी है) यह वचन है । जो प्रकृति से असुंदर है, वह श्रावकों की भी कैसे योग्य है ? यह अर्थ निर्युक्तिकार भगवंत के कथन से बिल्कुल विरुद्ध है । निर्युक्तिकार ने १९३ नं. के श्लोक में स्पष्ट शब्दों में साधु के लिये ही द्रव्यस्तव निषिद्ध बताया है। जिसमें से उठाकर टीका का वाक्य इन्होंने जोडा वह १९४ नं. की गाथा एवं उसकी टीका इस प्रकार - आह-यद्येवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्तत एव हेयो वर्तते ? आहोस्विदुपादेयोऽपि ? उच्यते, साधूनां हेय एव, श्रावकाणामुपादेयोऽपि, तथा चाह भाष्यकार 79
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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