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600 “सांच को आंच नहीं" 09/02 कि नष्ट करने में । समाज की कमजोरी का लाभ उठाकर क्रियोद्धार के नाम से नव गच्छसर्जकों ने तो अपने बाड़े मजबूत किये ही, पर इस अव्यवस्थित स्थिति को देखकर कतिपय श्रमणसंस्था के विरोधी गृहस्थों ने भी अपनेअपने अखाड़े खड़े किये और आपस के विरोधों और शिथिलाचारों से बलहीन बनी हुई श्रमणसंस्था का ध्वंस करने का कार्य शुरु किया। ___ लौंका तथा उसके अनुयायी मन्दिर तथा मूर्तियों की पूजा की अतिप्रवृत्तियों का उदाहरण दे देकर गृहस्थवर्ग को साधुओं से विरुद्ध बना रहे थे । कडुवा जैसे गृहस्थ मूर्तिपूजा के पक्षपाती होते हुए भी साधुओं के शिथिलाचर की बातों को महत्त्व दे देकर उनसे असहकार करने लगे, चीज बनाने में जो शक्ति व्यय करनी पड़ती है वह बिगाड़ने में नहीं । लौंकाशाह तथा उनके वेशधारी चेले हिंसा के विरोध में और दया के पक्ष में बनाई गई चोपाईयों के पुलिन्दे खोल खोलकर लोगों को सुनाते और कहते “देखो . भगवान् ने दया में धर्म बताया है, तब आजकाल के यति स्वयं तो अपना आचार पालते नहीं और दूसरों को मन्दिर मूर्तिपूजा आदि का उपदेश करके पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि के जीवों की हिंसा करवाते हैं, बोलो धर्म दया, में कि हिंसा में ? उत्तर मिलता दया में,” तब लौंका के चेले कहते “जब धर्म दया में है तो हिंसा को छोड़ों और दया पालो” अनपढ़ लोग, लौंका के अनपढ़ अनुयायियों की इस प्रकार की बातों से भ्रमित होकर पूजा, दर्शन आदि जो श्रमसाध्य कार्य थे, उन्हें छोड़ छोड़कर लौंका के अनुयायी बन गये। - इसमें लौंका और इनके अनुयायियों की बहादुरी नहीं, विध्वंसक पद्धति का ही यह प्रभाव है, मनुष्य को उठाकर उंचे ले जाना पुरुषार्थ का काम है, पर खड़े पुरुष को धक्का देकर नीचे गिराना पुरुषार्थ नहीं कायरता है, जैनों में से ही पूजा आदिकी श्रद्धा हटाकर शाह लौका, लवजी, रूपजी, धर्मसिंह आदि ने अपना बाडा बढाया, यह वस्तु प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, इनकी प्रशंसा तो हम तब करते जब कि ये अपने त्याग और पुरुषार्थ से आकृष्ट करके जैनेतरों को जैनधर्म की तरफ खीचते और शिथिलाचार में
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