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G000 “सांच को आंच नहीं" 09602 बात बतायी होने से, यहां पर 'आदि' शब्द से दही आदि का ग्रहण करना उचित ही प्रतीत होता है।
लेखकने सारार्थ (६) एवं निष्कर्ष (२) में ‘रसज जीवोत्पति युक्त आहार' की बात लिख कर, कहीं पर भी द्विदल संबंधी कथन का नहीं होना लिखा है, वह वदतोव्याघात है, चूंकि खुदने बताये रसज जीवोत्पति युक्त आहार में द्विदल से संसक्त दही का भी ग्रहण हो जाता है । क्योंकि दही भी आहार गिना जाता है।
पूर्वाचार्यों की परंपरा से द्विदल - दहीं संयोग में जीवोत्पत्ति मानी है। योनिप्राभृत ग्रंथ हाल में विच्छेद है, जिसमें द्रव्यों के मिश्रण से तत्काल जीवोत्पत्ति के अनेक प्रयोग थे । इसलिए इसमें सजीवता की सिद्धि कोई बाध नहीं है । लोकाशाह की प्राचीन सामाचारी से भी यह वर्ण्य सिद्ध होता है। उसमें भी द्विदल में दोष बताया है, वह इस प्रकार - देखिए सुशीलकुमारजी लिखित “जैन धर्म का इतिहास” में पृ. २९९-३०० पर लोकाशाह की सामाचारी में कलम (१७) 'जिस दिन गोरस लिया जाय उस दिन द्विदल का प्रयोग नहीं होना चाहिये ।' लेखक के पूर्वज श्री अमोलख ऋषिजी महाराज भी दहीद्विदल मिश्रण में जीवोत्पत्रि मानकर उसे अभक्ष्य मानते हैं । जिसका पाठ २२ अभक्ष्य-समीक्षा में पाठक देखें। ___ रसज संसक्त दहीं आ जाये तो उसको परठने का विवेक भी पात्र सहित वगैरह, नियुक्ति में बतायी हुई विधि के अनुसार समझना चाहिये ।
स्पष्टीकरण : (I) त्रससंसक्त में त्रस जीव दो प्रकार के -
(१) तदुत्थ : मूल द्रव्य में पैदा हुए, जैसे गेहुँ, आटे वगैरह में धान्य कीटक वगैरह। . (२) आगंतुक : बाहर से आयी चीटी वगैरह ।
ये दोनों प्रकार के त्रस जीव मूल द्रव्य से विधिपूर्वक अलग किये जा सकते है।
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