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-600 “सांच को आंच नहीं" (0902 "मासिक धर्म में धर्मानुष्ठान : संवाद" की समीक्षा
इस संवादमें स्थानकवासी समाज की शास्त्र और लोकविरुद्ध मान्यता को कुतर्क से सिद्ध करने का प्रयास लेखक महाशयने किया है, जो निम्नोक्त रीति से असिद्ध हो जाता है -
१. अभिधान - राजेन्द्र कोष भाग १ पृ. ८२७ के आधार पर सत्शास्त्र का अध्ययन करना स्वाध्याय है, यह बताया । परंतु उस, कोष में 'उनमें सूत्र के मूल पाठ का अध्ययन उच्चारण नहीं कल्पता' यह बात नहीं है अपने घर की कल्पित बात है । अस्वाध्याय केवल सूत्र का ही है, अर्थ का नहीं, इसका कोई आगम पाठ नहीं है । तो लेखक की ऐसी आगमविरुद्ध बात कैसे मानी जाएगी?
२. सूत्र-अर्थ इन दोनों में अर्थबलवान है । सूत्र गणधररचित है तो अर्थ तीर्थंकर कथित है । उसकी अनाराधना में प्रायाश्चित भी अधिक है । तो उसकी असज्झाय क्यों नहीं ? अर्थ से यहाँ पर नियुक्ति - भाष्य - चूर्णि - टीका से प्राप्त परंपरागत अर्थ अभिप्रेत है, जो सूत्र से अविरुद्ध है । टीकाकारादि महापुरुष भी पूर्व टीकादि के आधार से ही अर्थ करते थे, अपनी कल्पना से नहीं, यह टीकादि में अनेक स्थानों पर दृष्टिगोचर होता है । स्थानवासियों के स्वकल्पित - मनमाने अर्थ सूत्रविरोधी है, जिनमें काल्पनिकता के कारण परस्पर एक वाक्यता भी नहीं है । वे अर्थ नही परंतु अनर्थ है। . .... ३. व्यवहारादि सूत्रों की पाटे बांधकर स्वाध्याय वगैरह की सभी बातें आपवादिक बातें है, जो साधु साध्वी के लिये है । उसके आधार पर सभी जगह गृहस्थादि सभी को धर्मक्रियाओं में उसकी छूट देना, अपवाद का दुरुपयोग, अस्थान प्रयोगादि स्वरुप विराधकता है। __ संवाद के बीच में साधुके मोक समाचारी आदि की बातें लिखी उसका निराकरण यह है कि -
४. जिस प्रकार से गृहस्थ जगह - जगह पर शौच करता है, वैसा साधु का आचार नहीं है । अत: गृहस्थ विशेष शुद्धि के कारण शौचधर्मी है । आवश्यक शौच का तो साधु को भी शास्त्र में विधान है ही । जहाँ पर
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