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________________ "सांच को आंच नहीं" तत्काल जीवोत्पत्ति के अनेक प्रयोग थे । इसलिए इसमें सजीवता सिद्धि मे कोई बाध नहीं है, लौकाशाह की प्राचीन सामाचारी से भी यह वर्ज्य सिद्ध होता है । इसमें भी द्विदल में दोष बताया है, वह इस प्रकार - देखिए सुशीलकुमारजी लिखित " जैन धर्म का इतिहास" में पृ. २९९-३०० पर लौकाशा की समाचारी - में कलम (१७) 'जिस दिन गोरस लिया जाय उस दिन द्विदल का प्रयोग नहीं होना चाहिये ।' लेखक के पूर्वज श्री अमोलक ऋषिजी महाराज अपनी पुस्तक 'जैन तत्त्व प्रकाश' पृ. ४९७ पर २२ अभक्ष्य का विस्तृत वर्णन करके उसे त्याज्य बताते है । उसमें (नं. १८) में “घोल बडे कच्चे दही को पानी में घोलकर उसमें बड़े (पकौडे) डाले जाते हैं । वे कुछ समय बाद खदबदा जाते हैं । वे भी अभक्ष्य है ।" इस प्रकार द्विदल को त्याज्य मानते है । खुद के मान्य पूर्वजों का भी विरोध करते लेखक स्वच्छंदमति है या नहीं ? पाठक स्वयं विचारे । आज के विज्ञानयुग में सूक्ष्मदर्शक यंत्रों से प्रत्यक्ष जीव दिखाई देने पर भी ऐसी बातें करनेवाले अज्ञानियों के अज्ञान पर हँसी आती है। प्रत्येक की अपेक्षासे अनंतकाय में प्रायश्चित अधिक है, इसका भी अनंतकाय वर्ज्य है । लेखक श्री पूर्वाचार्यों को अल्पज्ञ और खुद को महाज्ञानी मानकर सभी 'वस्तु के जीवोत्पत्ति का काल बताने जा रहे है । " वस्तु के अंदर वर्ण में, गंध में, रस में, स्पर्श में अशुभ विकृति होने पर जीवोत्पत्ति होने का स्वभाव हो सकता है” परंतु वस्तुओं के स्वभाव के अनुसार अमुक काल में पकना, अमुक काल में बिगडना निश्चित है । जैसे फल-फूल में यह प्रत्यक्ष है, वैसे ही सभी वस्तुओं में है । तो जहाँ-जहाँ पर संभव है पूर्वाचार्यों ने वह बताया है, बाकी वस्तुओं के लिये उपर का सामान्य नियम बताया है । चार महाविगई बतायी उसमें मांस-मंदिरा के समकक्ष शहद - मक्खन है, ऐसा कहीं पर भी नहीं कहा गया है, उसमें तरतमता अवश्य है ही । परंतु 51
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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