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"सांच को आंच नहीं"
मे प्रसिद्ध है । इसलिये परठने का विवेक न रखने के कारण शहरों में साधुसाध्वी के लिये वसति दुर्लभ बनती जा रही है ।
व्यवहार सूत्र में मोकप्रतिमादि की बातें विशिष्ट ज्ञानी - प्रतिमाधारी के लिये है । वे विशिष्ट ज्ञान के आधार से कल्प्य - अकल्प्य, सजीव - निर्जीव का विवेक कर सकते थे । वहां पर मूत्र में कृमि आदि की संभावना भी बतायी है । आपवादिक को एकांत से कल्प्य मानकर उपयोग करने में कहीं ऐसे जीवाकुल मूत्र के उपयोग में प्रथम महाव्रत में भी, संयम मे भी दोष संभव है 1. इसलिये उसको अशुचि न मानकर उसका सार्वत्रिक उपयोग करना सचमुच जैनधर्म की निंदा करवाकर दुर्लभ बोधिता को प्राप्त करना ही है ।
" शास्त्रपाठ में चोरियाँ" की समीक्षा
इस प्रकरण में लेखक ने 'चोर कोटवाल को डंडे' की बाजी खेली है । मायाचारिता से अंग्रेज विद्वान का नाम दे देकर अज्ञ पाठकों को उन्मार्ग का रास्ता बताते ये लेखक सचमुच दयापात्र है । भवभ्रमण को कितना बढा रहे
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है ।
सन् १८८८ में छपी उपासकदशा पुस्तक के अनुवाद नोट में हारनल साहब ने १. अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि २. अण्णउत्थि परिग्गहियाणि चेहयाई ३. अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि अरिहंत चेड्याइं । ये तीन पाठ देकर २-३ नंबर के पाठ को प्रक्षिप्त माना है। तीन नंबर के पाठ को हारनल साहब ने प्रक्षिप्त माना, ऐसा अज्ञ लोगों को बताकर प्रक्षेप प्रक्षेप का शोर मचाते हो । जबकि दो नंबर के पाठ को भी उन्होंने प्रक्षिप्त माना है, उसे खुद भी स्वीकारते हो, क्योंकि इसको स्वीकारे बिना अर्थघटन संभव नहीं है। अज्ञ पाठकों को यह जानकारी नहीं होने से अंग्रेज के नाम से अपनी खीचडी पका सकते हो । बाकि विद्वान तो आपकी बेईमानी पकड़ ही लेंगे।
दुसरी बात आपने लिखी संवत् १६२१/१७४५/१८२४ की प्रतियों से भी
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