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६-6000 सांच को आंच नहीं" 0960
यह तो अतिप्रसिद्ध बात है कि लौकिक में भी ऋषिमुनि आदि भी अपने शिष्यों को योग्यता देखकर ही विशिष्ट श्रुत - मंत्र-विद्यादि देते थे, तो लोकोत्तर जिनशासन में सरासर योग्यता का विचार किये बिना आगम जैसे अतिविशिष्ट गणधरप्रणीत, अन्य श्रुतधर प्रणीत - आगम श्रुत, जैसे - तैसे गृहस्थादि को दिये जायेंगे क्या ? इतनी सीधी सी बात भी कदाग्रहीओं के गले नहीं उतरती है । और अयोग्यों को देकर अविधि करके संसार भ्रमण बढाते रहते हैं । आप से ही नीकले तेरापंथी आचार्य जितमलजी आगम पाठ का सही अर्थ करके भ्रमविध्वंसन पृ. ३६१ पर स्पष्ट बता रहे है - “केतला एक कहे - गृहस्थ सूत्र भणे तेहनी जिन आज्ञा छे, ते सूत्रना अजाण छे । अने भगवन्तनी आज्ञा तो साधु ने इज है । पिण सूत्र भणवारी गृहस्थ ने आज्ञा दीधी नथी ।” .. अभी अपनी मूल बात - जैन साधु - साध्वी के रात्रि में पानी रखना या आहार रखना निषिद्ध है, यह बात बराबर है। परंतु जिनशासन केवल उत्सर्गमय नहीं है । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से उसमें भी अपवाद है ही। वर्तमान मे अतिशुद्धिवाद के काल में जैनधर्म की निंदा न हो, ऐसी किसी अपेक्षा से महापुरुषों से आवश्यकता महसूस होवे तो रात को पानी रखने की परंपरा चालु हुई है । यह एक जीताचार है।
औषधी रूप से कोई मूत्रादि का उपयोग करे इसलिये वह एकान्त अशुचि नहीं है, कहना अज्ञानता है । औषधी रुप में उपयोग कारणिक होता है उसमें शुचि-अशुचि; भक्ष्य - अभक्ष्य गौण बनता है । जहर का भी औषधीरुप में उपयोग होता है, इसलिए वह जहर नहीं है, ऐसा नहीं कहा जाता हैं। णिसाकप्प वगैरह भी आपवादिक विधियाँ हैं, उन्हें औत्सर्गिक बना देना, वह तो विराधकता है । इस अविधि से ही तो खुद लोक में निंदापात्र बनते हैं एवं जिनधर्म को लजाते हैं, और दुसरों के उपर उसका दोषारोपण करना, खुद के दोषों को छिपानेस्वरुप मायाचारिता है मूत्रादितो लोक में भी अशुचि के रुप
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