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-G006 “सांच को आंच नहीं" (D9601 में भी करते है, सामायिक में भी करते हैं और पूजा का फल भी उनको एकस्ट्रा में मिलता है, जबकि स्थानकवासी तो केवल सामायिकादि में ही स्तोत्र-पाठ करेंगे । पूजा में तो पाप मानने से उस फल से भी वंचित है, तो हिसाब में लाभ किसका बढेगा ? वास्तवमें स्तोत्रादि भी स्वभूमिका के अनुसार पूर्वपूर्व से युक्त होकर ही विशिष्ट फलदायी होते है । अंक बिना के शून्यों की कोई कीमत नहीं होती हैं । इसलिए केवल महिमापरक वाक्यों को लेकर दुसरे योगों की अनुपयोगिता सिद्धि नहीं होती है । अब विचार करें कौन मूर्ख - महामूर्ख है ?
अज्ञान तिमिर भास्कर का पूर्ण अवलोकन किया, इन्होंने लिखी बात का उसमें नामो निशान भी नहीं है । आत्मारामजी जैसे धुरंधर विद्धान के ग्रंथ के नाम से 'कपोलकल्पित' बातें लिखकर पाठकों को उल्लू बनाना खुद की कमजोरी, खुद के मत की नि:सारता को प्रकट करता है । लेखक की योग्यता भी इससे दिखायी देती है। ..... आगे लेखक श्री आधाकर्मी आदि दोष लगाके मूर्तिपूजक साधुओं की निंदा कर रहे है । मूर्तिपूजक अनेक शुद्ध संयमी साधु आज भी आधाकर्मी आदि दोषों का सूक्ष्मता से वर्जन करते दिखायी देते है । जबकि अनेक स्थानकवासी संत-सतियाँ भी आधाकर्मी आदि का सेवन करते दिखायी देते है । अज्ञानता से नित्यपिंड के लघुदोष से छुटने में आधाकर्मी आदि बडे दोष में लिपटे हुए अनेक स्थानकमार्गी दिखते हैं । 'हमारा धोवण पानी निर्दोष होता है' ऐसा मनसे मानने से पानी निर्दोष नहीं बनता है । केवल माया चारिता है । इस काल में संपूर्ण शुद्ध धोवण मिलना अतिदुर्लभ है । संतो की प्रेरणा पाकर प्राय उन्हीं के लिए धोवण पानी बनाकर रखा जाता है । इसलिए द्वेष से ऐसा कीचड उछालना बराबर नहीं है।
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