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"सांच को आंच नहीं "
बताते हैं ।" यह बात कहकर ग्रंथकार आगे देवगृह गमन की विधि - सर्व ऋद्धिपूर्वक जाना वगैरह विस्तृत विधि बताते है। इससे पाठक लेखक की बेईमानी समझ सकते है ।
आगे लेखक महाशय मंदिर मार्गियों को कहते है- “शर्महीन होकर कहते जा रहे है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा अनादि से है” हम शर्महीन होकर नही कहते है, परंतु अनेक आगमों के ठोस प्रमाणों से सिद्ध होने से गर्व से मूर्तिपूजा को अनादि बता रहे हैं। जबकि लेखक स्वयं संमूर्छिम जैसे टपके हुए प्रमाणहीन पंथ को शर्महीन होकर भगवान महावीर से जोडने की कुचेष्टा कर रहे है । आगमों में जगह- जगह पर शाश्वत (अनादि) जिनप्रतिमाओं की बात है, अच्चणिज्ज पूणिज्ज कहकर आगम हीं उन्हे, पूजनीय बता रहे है तो मूर्तिपूजा अनादि स्वयंसिद्ध हो ही जाती है। केवल इसके लिए लेखक श्री को अभिनिवेश का काला चश्मा उतारकर सम्यगदर्शन के पवित्र चश्मे से आगमों का अवलोकन करने की आवश्यकता है ।
आगे लेखक ने सम्यक्त्व शल्योद्धार की बात को लेकर पूरी बेईमानी की है, सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ. ४ पर पू. आत्मारामजी म. प्रश्नव्याकरण सूत्र के पांचवें संवर द्वार का पाठ देकर आगे इस प्रकार लिखते है “ भावार्थ - पात्र १ पात्रबंधन २ पात्रकेसरिका ३ पात्र स्थापन ४ पडले तीन ५ रजस्त्राण ६ गोच्छा ७ तीन प्रच्छादक १० रजोहरण ११ चोलपट्टा १२ मुखवस्त्रिका १३ वगैरह उपकरण संजम की वृद्धि के वास्ते जानने ॥ उपर लिखे उपकरणों में उनके कितने, सूत के कितने, लंबाई वगैरह का प्रमाण कितना, किस-किस प्रयोजन वास्ते और किस रीति से वर्तने वगैरह कोई भी ढुंढक जानता नहीं है, और न यह सर्व उपकरण इन के पास है ।" लेखक ने जो इस ग्रंथ में “जिस साधु के पास ये उपकरण नहीं हो और अन्य कोई भी उपकरण हो वह जैन साधु नही है ” ऐसा होना लिखा है यह वाक्य नहीं तो उपरोक्त पाठ में है नहीं आगे पीछे भी ग्रंथ में है । होगा भी कैसे उपर मूलसूत्र में ' मुहणंतगमाइयं' तथा उसके अनुवादमें बताये वगैरह शब्द से अन्य संयमोपयोगी उपकरण ग्रहण किये है तो पू. आत्मारामजी जैसे महाविद्वान ऐसा कैसे लिखेंगे ।
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