________________
-6000 “सांच को आंच नहीं" (0902 मुहपत्ती हाथ में रखना ही सिद्ध होता है । आवश्यकतानुसार बोलते वक्त उसका उपयोग रखने से अप्रमत्तता भी रहती है । और साधु का लिंग भी वहीं है । हमेशा बांधी रखना कुलिंग है।
विद्वान संत संतबालजी नीडरतापूर्वक कहते है - "मुखबंधन श्री लोकाशाह ना समयथी शरु थयेल नथी परंतु त्यार बाद थयेला स्वामी लवजी ना समय थी शरु थयेल छे अने ए जरुरी पण नथी” (जैन ज्योति ता. १८-५१९३६ पृ. ७२ राजपाल मगनलाल बोहरा का लेख))
तेरापंथ के आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी स्पष्ट खुलासा दिया है कि “जैन परम्परा में मुखवस्त्रिका बांधने का इतिहास पुराना नहीं है। यह स्थानकवासी परंपरा से शुरु हुई है । मुनि जीवेजी आदि के समय से शुरु हुआ है।
किंतु एक परंपरा के चलने का अर्थ यह नहीं कि हम पुराने अर्थों को . ठीक से न समझें । हमें पुराने अर्थों को भी ठीक से समझना हैं । हस्तक से शरीर का प्रमार्जन करें । हस्तक का अर्थ है मुखवस्त्रिका । मुखवस्त्रिका मुंह पर बांधने का अर्थ नहीं है । मुखवस्त्र यानी रुमाल, जब मुनि प्रतिलेखन करें तो उस रुमाल या कपडे से पहले पूरे शरीर का प्रमार्जन करें। मुखवस्त्रिका से कैसे शरीर का प्रमार्जन करेंगा ? यही सोचने की बात है । 'हत्थगं संपमज्जिता' प्रतिलेखन की विधि है कि उससे पहले पूरे शरीर का, सिर से पैर तक हस्तक से प्रमार्जन करें । अब कैसे करेगा ? हम जो सही अर्थ है, उसे समझ नहीं पाते, इसलिए रुढियां पनपती है । मुखवस्त्रिका का अर्थ मुंह पर बांधने की पट्टी नहीं । आगम में कही भी बांधने का उल्लेख नहीं है।"
(तत्त्वबोध से साभार उद्धृत ता. ०१/०३/०४ सितंबर २००७)
लेखक ने बताये ३ गुण तो हाथ में रखने से भी शक्य है ही, चौथा अप्रमत्तता गुण भी बढता है।
मुंहपत्ती विषयक कई बार शास्त्रार्थ भी हुए, पर स्थानकवासी भाई पराजय हो जाने पर भी अन्य स्थान पर जाकर कह देते हैं कि “शास्त्रार्थ में क्या धरा है ? हम करते हैं, वह शास्त्रनुसार ही करते हैं ।” पर जहाँ ऐसे विषय
33