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-600000 “सांच को आंच नहीं” (0960__तथा इसी योगशास्त्र में वंदन विषयक पूर्वाचार्यों की गाथाएँ उद्धृत की गयी है, जिनमें से मुंहपत्ति हाथमें रखने का स्पष्ट रूप विधान है । वे गाथाएँ इस तरह हैं :
वामंगुलिमुहपोत्तीकरजुयतलतलत्थजुत्तयहरणो । अवणिय जहोत्तदोसं गुरुसमुहं भणइ पयडमिणं ॥४॥ वामकरगहिअपोत्तीएगदे सेण वामकन्नाओ । आरभिऊणं णडालं पमज्ज जा दाहिणो कण्णो ॥८॥ अब्बोच्छिन्नं वामयजाणुं नसिऊण तत्थ मुहपोत्तिं । रयहरणमज्झदे सम्मि ठावए पुज्जपायजुग ॥९॥ तथा इसमें मुंहपत्ति से बायें कान से लेकर ललाट को पूंजते हुए दायें कान तक पूंजकर मुंहपत्ति को बायें घुटने पर रखना बताया है।
मुंहपत्ति हाथ में रखने से ही कान ललाटादिक की प्रमार्जना करके जीवदया पाल सकते हैं, परंतु हमेशा मुंहपत्ति बंधी हुई होवे तो मुहंपत्ति से प्रमार्जना नहीं हो सकती उससे जीवदया भी नहीं पल सकती । इसलिए मुंहपत्ति बांधना सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है।
जैन आचारों से अनभिज्ञ अंग्रेज का कहना कोई महत्व नहीं रखताहै । टीकाकार - पूर्वाचार्यों के वचन प्रामाणिक गिने जाते हैं। . आगम के मूलसूत्र से भी मुहपत्ती बाँधते नहीं थे, यह सिद्ध होता है । विपाकसूत्र में मृगावतीने गौतम स्वामीजी को मुंह बाँधने का कहा है, अगर बंधा हुआ ही होता तो क्यों बांधने का कहती ? इस प्रकार मूल आगम से मुहपत्ती मुंह पर नहीं बांधनी सिद्ध है । तो भी "मुखवस्त्रिका हाथ में रखना या मुँह पर बांधना ऐसा एक भी स्पष्ट पाठ आगम में नहीं है” ऐसे झूठे गप्पे लगाते है।
४. देवसूरि सामाचारी प्रकरण ग्रंथ में रजोहरण प्रतिलेखन करते वक्त मुँह पर मुहपत्ती बांधने का लिखा है, ऐसा लेखक कहते है, उससे तो स्पष्ट सिद्ध होता है, उसी वक्त मुंह बांधना, उसके अलावा नहीं बांधना ।
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