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"सांच को आंच नहीं"
“चिण्हट्टा उवगरण दोसा उ भवे अचिंधकरणम्मि । मिच्छत्त सो व राया व कुणह गामाण वहकरण || ५३ || ”
टीका : परिद्वविज्जंते अहाजायमुवगरणं ठवेयव्वं मुहपोत्तिया, रयहरणं
चोलपट्टो य ।
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इसी टीका में मृतक को रात में रखना पडे तो मुहपत्ती बांधने का कहा है, वह मुँह में जीव-जंतु प्रवेश न करें, दुर्गंध आदि से रक्षा वगैरह के लिए
समझना ।
आवश्यक नियुक्ति और टीका में काउस्सग्ग मे मुहपत्ती दाहिने हाथ में और रजोहरण बायें हाथ में रखने का स्पष्ट उल्लेख है, उससे सिद्ध होता है कि जब बोलने की आवश्यकता नहीं तब मुहपत्ती मुख के आगे रखनी नहीं है अपितु हाथ में रखनी है - पाठ इस प्रकार है -
चउरंगुल मुहपत्ती उज्जूए डब्बहत्थ रयहरणं । वोसट्टचत्तदेहो काउस्सग्गं कहिज्जाहि ।। १५४५
टीका मुहपत्ति उज्जुए 'त्ति' दाहिण हत्थेण मुहपोत्तिया घेत्तव्वा, डब्बहत्थे रयहरणं कायव्वं ।
योगशास्त्र के पाठ में मुहपत्ती से जीव रक्षा की ही बात है । उससे मुंहपर बाँधे रखना, सिद्ध नहीं होता है, बल्कि उसमें हाथमें मुंहपत्ति रखने के कई पाठ है ।
जैसेकि योगशास्त्र के तृतीय प्रकाश, वंदन अधिकार में इस तरह बताया है :
" तंत्र प्रसवकाले रचितकरसंपुटो जायते प्रव्रज्याकाले च गृहीतरजोहरणमुखवास्त्रिक इति यथा जातमस्य स यथाजातः तथाभूत एव वन्दते इति वन्दनमपि यथाजातम् ।”
इसमें दीक्षा के समय दोनों हाथों से रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका को ग्रहण करने का बताया है एवं उसी तरह वंदन के समय भी दोनों हाथों में रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका को ग्रहण करके रखना वह वंदन के अंतर्गत “यथाजातम्” आवश्यक कहलाता है ।
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