SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "सांच को आंच नहीं" को मिथ्यात्व के लिये प्रेरित क्यों करें ? जरा शांति से विचार कीजियेगा ! आगे ये लिखते है - “शाश्वत स्थानों में मूर्ति या सिद्धायतन का होना ही असंभव है " मतलब हम स्थानकवासी मूर्ति मंदिर नहीं मानते, इसलिए वे शाश्वत स्थानों में संभव नहीं है ! कितनी हास्यास्पद बात है ! आपके नहीं मानने से क्या शाश्वत वस्तुस्थिति बदल जाएगी ? आगे फिर लेखक आगम में सिद्धायतन, शाश्वत जिन वगैरह अनेक पाठों के प्रक्षेप की कुकल्पना करते है । यह तो बाल निकालने की जगह मस्तक को ही काट लिया ! आप कौनसे अतिशायी ज्ञान से उन पाठों को. प्रक्षिप्त बता रहे हैं । केवल अपनी कुकल्पना से अनेक पाठों को प्रक्षिप्त कहने जाओगे तो दिगंबरो के पक्ष में ही बैठ जाओगे । वे इसी प्रकार की कुकल्पनाओं से आगमविच्छेद मानते हैं । · हजार साल की अनेक प्राचीन हस्तप्रतियाँ, चैत्यादिके पाठों की प्रामाणिकता सिद्ध कर रही हैं । १००० साल पूर्व के टीकाकारों के सामने एवं उससे भी प्राचीनकालीन निर्युक्ति आदि सबके सामने ये ही पाठ थे, तभी तो उन पर विवेचन शक्य है । अतः प्रक्षेप की बात केवल बकवास मात्र है । दुसरी बात आप भी पुप्फभिक्खू के ही भाई हो, जिन्होंने आपके जैसी कल्पना करके अपने कुमतको प्रचार में विघ्नभूत सभी पाठ उडाकर आगम छपवाये । परंतु उस वक्त स्थानकवासी श्रमणसंघ समिति ने सर्वानुमति से ठराव पास कर उसे अप्रमाणिक घोषित किया । ये सब बातें इसी पुस्तिका में 'णमोत्थुणं पाठ प्रक्षेप की समीक्षा प्रकरण में देखे । अतः प्रक्षेप की बातें सब आकाशकुसुम समान निरर्थक है ।" देखिये ! निष्पक्ष इतिहासवेत्ता पं. कल्याणविजयजी म., पाठ प्रक्षेप के लिये क्या कह रहे हैं । “आगमों में बनावटी पाठ घुसेड देने की बात कही है, वह भी उनके हृदय की भावना को व्यक्त करती है । यों तो हर एक आदमी कह सकता है कि अमुक ग्रन्थ में अमुक पाठ प्रक्षिप्त है, परन्तु प्रक्षिप्त कहने मात्र से वह प्रक्षिप्त नहीं हो सकता, किन्तु पुष्ट प्रमाणों से उस कथन का समर्थन करने से ही, विद्वान लोग उस कथन को सत्य मानते हैं । संपादक (पुप्फभिक्खू) ने 27
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy