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*6000 “सांच को आंच नहीं” (09602 तीर्थंकर के निर्वाण बाद असंयति पूजा नामक अच्छेरा हुआ । उसमें साधु - शिथिलाचारी - असंयति जैसे बने उनका जोर नुब बढा । मंदिर में पूजा-अर्चा (जो श्रावकों का कार्य है) खुद करने लगे मंदिर में रहने लगे, देवद्रव्य का भक्षण वगैरह अनाचार में प्रवृत होने से चैत्यवासी कहलाए । उस जमाने में कुवलयप्रभ नामके सुविहित आचार्य चैत्यवासियों के वहां आये, उनका उपदेशादि का प्रभाव देखकर चैत्यवासियों ने आप यहीं पर चातुर्मास करेंगे, तो आपके उपदेश से चैत्य बन सकेंगे” यह विनंति की । तब उन्होंने स्पष्ट जवाब दिया, 'जहवि जिणालये, तहा वि सावज्जमिणं णाहं वायामित्तेण एवं आयरेज्जा' मतलब 'जिनालय' का कार्य होने पर भी (इसमें वास्तविक दोष न होने पर भी) आपके इस स्थान में जिनालय का उपदेश सावद्य है क्योंकि यहां पर जिनालय बनने से आपका शिथिलाचार का प्रचार बढेगा । इसलिए वाणी से भी मैं यह आचरण नहीं करूँगा ऐसे स्पष्ट जवाब से तीर्थंकर नामकर्म का बंध करके संसार को एक भव प्रमाण किया । आगे पीछे के प्रकरण से उपर के पाठ का यह स्पष्ट अर्थ होते हुए भी इस प्रकार बेईमानी करना सज्जनता नहीं है।
आगे की गयी महानिशीथ की १२५० वर्ष बीतने पर कुगुरु की बात उस काल में हुए शिथिलाचारी - चैत्यवासी साधुओं को ही लागु होती है।
दूसरे मंदिरमार्गी संविग्न साधु भी उस वक्त बहुत थे । अतः उस वक्त के सभी साधु कुगुरु कोटी में नहीं आते है । और इसी पुस्तिका में लेखक के बताये अनुसार इनका पंथ नया उत्पन्न हुआ है अत: भगवती सूत्र के कथन से वह भगवान का मार्ग नहीं हो सकता है चूंकि भगवतीजी में प्रभु के शासन का २१००० वर्ष अविच्छिन्न चलना लिखा है । अत: महानिशीथ के पाठ से उपसायी इनकी कुकल्पनाएँ धूल में मिल जाती है।
आगे लेखकश्री जैनागमों से सिद्ध, अनेक जैन-जैनेतर शब्दकोशों से सिद्ध, व्याकरण से सिद्ध, 'चैत्य' शब्द का 'जिनप्रतिमा - मंदिर' अर्थ झुठलाने के लिए चैत्य शब्द की चर्चा करते है।
उनका कहना है कि एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, वैसे चैत्य के भी अनेक अर्थ होते है । यह बात ठीक है, परंतु शब्द के जो अर्थ व्याकरण-कोश
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