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________________ "सांच को आंच नहीं" बुद्धि का दिवाला है । आगमोक्त श्रावकों की पौषधशाला उनके बड़े-बड़े मकानों का ही एक विभाग था, जो आवश्यक था । अभी तो स्थानकादि अलग से बनते है और धर्महेतु ही बनते है, तो लेखक उसे आचारंग सूत्र के हिसाब से अहितकारक - अबोधिजनक मानेंगे ? अगर नहीं तो वीतराग परमात्मा के मंदिर में ही आपको वह क्यों नजर आता है ? कैसी पापबुद्धि ? अगर स्थानकों को अबोधिजनक मानते है तो, उसमें आपके साधुओं की डायरेक्ट या इनडायरेक्ट प्रवृत्ति - उपदेश अनुमोदना कैसे ? दान देनेवालों की भाग्यशाली, पुण्योपार्जन करनेवाले वगैरह विशेषणों से तख्तियाँ कैसे ? यह तो हाथी के दांत दिखाने के अलग और खाने के अलग वाली बात हुई । आरंभ - समारंभ से छपनेवाली धार्मिक पुस्तकों में ज्ञानगच्छ जैसे कट्टरपंथी भी दानवीर की प्रशंसा, उनकी नामावली उनको धन्यवाद वगैरह करते है, तो सभी, आचारांग सूत्र के हिसाब से इन प्रवृत्तियो से भवभ्रमण करेंगे, यह लेखक मानते है क्या ? अगर नहीं तो अरिहंत परमात्मा से ही इतना द्वेष क्यों ? आगे लेखक “अनगिनत मंदिर मूर्तियाँ जोड दी गई है। कई खोटे शिलालेख बनाने के पाप भी करने पडे और उन्हें जमीनमें गाढ - गाढकर कही से खुदाई में निकालना बताकर अपने मन को झूठे इतिहासों से ही संतुष्ट करने लगे ।” ऐसी उटपटांग बाते लिखते है, जो विद्वत्सभा में हास्यास्पद हो जाती है | स्थानवासी पंथ को ३५० साल और लौंकाशाह को करीब ५५० साल हुए, उसके पहले मूर्तिपूजा का विरोध जैनधर्म में था ही नहीं, उसके पहले की सेंकडों प्रतिमाएँ, शिलालेख निकल रहे है। जिन्हें प्रामाणिक ऐसे अंग्रेज और अन्य धर्मी विद्वानों ने भी प्रमाणित किये है। इस वैज्ञानिक युगमें अनेक परीक्षणों से जाँचकर विद्वान जाहिर करते है। उनके परीक्षणों से जाहिर की गई अनेक अतिप्राचीन मूर्तियाँ, शिलालेखों को काल्पनिक कहना सत्य को कलंकित करना है । अनेकबार ऐसे लेख - शिलालेखों का प्राचीन इतिहासकारों के इतिहास से संवाद मिलता है, जिससे इतिहास की नयी कडियाँ खुलती है । अनेक बार 23 -
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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