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-600 “सांच को आंच नहीं” (09602 आपको अपनी प्रतिमाएँ इष्ट हैं ? उफ् ! वीतराग होने पर भी आप मूर्तिपूजकों के पक्ष में जा बैठे ? अब हमारी दया की पुकार कौन सुने?
इत्यादि अनेक कल्पना लेखकके दिल में होती, पर खुशी इस बात की है कि लेखक महावीर प्रभु के समय पैदा ही नहीं हुए।
'एक मंदिर बनानेवाला या एक मंदिर की नीव में ईंट डालनेवाला एक भव में मोक्ष में जाता हैं' ऐसी प्ररूपणा कोई करता ही नहीं है । इस प्रकार उटपटांग झूठे आरोप घडने से लेखक की योग्यता प्रकट होती है।
आगे लेखक आचारांग प्रथम अध्ययन में जो लोग धर्म-मोक्ष के लिए छ:काय की हिंसा करते है, वह अहितकारक - बोधिदुर्लभता का कारण होती है, वगैरह लिखते है । उसका संबंध मूर्तिपूजा से जोडना चाहते हैं, वह अयोग्य है । आचारांग सूत्र की टीका में स्पष्ट अर्थ किया है, कि कार्तिकेय को वंदनादि, बग्रहाणादि को धर्मबुद्धि से दान, कुमार्ग उपदेश से हिंसा में प्रवृत्ति, दुर्गादि के सामने बली, पंचाग्नि तप वगैरह क्रिया में प्रवृत्त होना अहितकर, अबोधि का कारण है । मतलब वहाँ सब मिथ्यात्व की क्रियाएं ही बतायी है । अगर यह नहीं मानो तो, साधु को वंदन करने जाना, कबुतर को चुग्गा - गाय को घास वगैरह अनेक क्रियाओं में हिंसा होती है, जिन्हें स्थानकवासी लोग भी धर्मबुद्धि से ही करते है, उन्हें भी अबोधि का कारण मानना पडेगा । इसलिए स्पष्ट होता है कि श्रावकों के लिए विहित ऐसी जिनपूजा में यह बात लागु नहीं होती है । लेखक खुद साधुओं की यतनापूर्वक की गमनागमन क्रिया में हिंसा होते हुए भी पापकर्म बंध नहीं होना कहते है, जबकि जिनपूजा में भी अनेक प्रकार की यतनाएँ होते हुए भी उसके समकक्ष मंदिर मूर्ति को जोडना स्वीकार नहीं करते हैं, यह केवल मताग्रह है । पूर्वधर उमास्वातिजी वगैरह महापुरुषों ने उसी प्रकार श्रमणोपासक के लिये द्रव्यस्तव बताया है, उसे ये डेढ होशियार बुद्धि का दिवाला कहते है । पू. उमास्वातिजी म. श्रावकप्रज्ञप्ति गाथा नं. ३४६ में एवं पू. हरिभद्रसूरिजी म. चतुर्थ पंचाशक महाग्रंथ में कहते हैं - "शरीरादि सांसारिक और दुसरे धार्मिक कार्यों मे अनेक प्रकार से जीवहिंसा करते हुए भी कल्याणकारी जिनपूजा में हिंसा का बहाना निकालकर प्रवर्तन नहीं करना वह मूर्खता है । अब पाठक विचारें किसकी
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