SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "सांच को आंच नहीं" जीवों की विराधना होती है, फिर भी आप इन्हें कुछ नहीं कहते हैं, यह बडे आश्चर्य की बात है । हाय ! यह कौनसा धर्म ? यह कैसी भक्ति ? कि जिसमें जीवों की अपरिमित हिंसा हो । हे प्रभो ! आपको इन लोगों ने मेरू पर ले जाकर कच्चे पानी से स्नान कराया, पर उसे तो हम आपके जन्म- गृहस्थावस्था से संबोधित कर अपना बचाव कर सकते हैं। पर आपकी कैवल्यावस्था पर और निर्वाण दशा में भी ये लोग भक्ति और धर्म का नाम ले लेकर इतनी हिंसा करते हैं, उसे आप भले ही सह लें, पर हम से तो यह अत्याचार देखा नहीं जाता । यद्यपि ये लोग चाहे अव्रती अपच्चकुखानी हो, पर आप तो साक्षात् अहिंसा धर्म के अवतार हो, आपकी मौजूदगी में यह इतना अन्याय क्यों ? ये लोग आपके लिये ही वाजा गाजा (दुंदुभी बजाते हैं। आपले आवाज के साथ में भी शहेनाई के सुर देते हैं फिर भी आप बड़ीशान से मालकोश वगेरह रागरागनिओं को ललकारते रहते हैं इसमें वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है उसका दोष किसके शिर पर है ? क्या आप उन्हें मना नहीं कर सकते ? । तथा आप स्वयं भी, घंटे तक खुले मुँह व्याख्यान दे रहे हैं, तो इसमें क्या वायुकाय के जीव मरते नहीं होंगे ? जबकि एक बार खुले मुँह बोलने में भी असंख्य जीव मरते हैं तो फिर घंटे तक में तो कहना ही क्या ? यदि आप खुद ही खुले मुँह बोलोंगे तो पंचम आरे के पामर प्राणी तो निःशंकतया खुले मुँह ही बोलेंगे । और कोई कहेगा तो आपका उदाहरण देकर अपना बचाव कर लेंगे, फिर दयाधर्मियों की तो सुनेगा ही कौन ? | यदि आपके पास वस्त्र का अभाव हो तो लीजिए मैं सेवा में वस्त्र लादूं पर आप खुले मुँह तो कृपया व्याख्यान मत दो । यदि आप इतना कुछ कहने सुनने पर भी मुँहपत्ती नहीं बान्धोगे तो अच्छे आप तीर्थङ्कर हो पर मैं तो आपका व्याख्यान कभी नहीं सुनूंगा । कारण मेरी यहि प्रतिज्ञा है कि जहाँ एक शब्द भी खुले मुँह बोला जाये वहाँ ठहरना भी अच्छा नहीं । आपको अपनी प्रतिमा बनवाना भी पसंद है अतः एव समवसरण में दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के सिंहासन पर आपकी ही ३ प्रतिमा बनवा कर बैठाई जाती है । आप वहाँ मना तक नहीं करते हैं इसके विपरीत आप उन मूर्तियों की सेवा पूजा और दर्शन करने में भी धर्म बताते हैं । क्या 21
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy