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-G006 “सांच को आंच नहीं" (D 9602 - उनके उतरने की - भोजन की व्यवस्था, क्या बिना आरंभ - समारंभ हो सकती है ? स्थानकवासी साधु भी इनके प्रेरक होते ही है और अपने भक्तों को निषेध नहीं करते इसलिए अनुमोदक भी होते ही है ।
खुद के निमित्त से भयंकर आरंभ-समारंभ में इनको हिंसा नहीं दिखती । परमात्मा के निमित्त से होती नाममात्र की हिंसा में हिंसाहिंसा का शोर मचाते हैं । यह तो गुड खाना और गुलगुलों से परहेज रखने जैसी बात है। - यह तो खुब हुआ, लेखक भगवान महावीर के समवसरण में विद्यमान नहीं थे, यदि होते तो हार्ट एटेक आ जाता और शायद जीवित रहते तो गोशाले की तरह विरोधमें चिल्लाये बिना नहीं रहते कि, अरे ! त्यागी, वीतराग पुरुषों को इतने आरंभ और आडंबर की आवश्यकता क्यों ? यदि उपदेश-व्याख्यान देना ही इष्ट है तो महारंभ पूर्वक समवसरण की क्या आवश्यकता है। हाय रे हाय ! इतना पानी छिड़काना, अरे इतने गाडों के गाडे भरे हुए जल थल में उत्पन्न हुए फूलों का बिछवाना यह क्यों किया जाता है । इसके अतिरिक्त एक योजन ऊँचे से पुष्प बरसाने से अनेक वायुकाय के जीवों की विराधना होती है । अरे ! प्रभो ! अग्निकाय का आरम्भ ये धूप बत्तिएँ व्याख्यान में क्यों ? हाय ! पाप, हाय ! हिंसा, अरे ! भगवान् ! ये आपके भक्त इन्द्रादि देव तीन ज्ञान संयुक्त सम्यग् दृष्टि अल्प-परिमित संसारी महाविवेकी, धर्म के नाम पर आपके सामने घोर हिंसा करते हैं, और आप बेठे २ देखते हो, पर इनको कुछ कहते नहीं हो ? इतना ही नहीं पर आप तो इनके रचे हुए समवसरण में जाकर विराजमान हो गये हो ? अतः आप स्वयं इस आरम्भ की अनुमोदना करते हो । तथा धर्म के नाम पर इतनी भीषण हिंसा करने वालों का, आप स्वयं होंसला बढ़ाते हो । प्रभो ! क्या आप यह भूल गये हैं कि भविष्य में कलियुगी लोग इसी का अनुकरण कर, आपका उदाहरण दे बिचारे हम जैसे केवल दयाधर्मियों (ढोंगियों) को बोलने नहीं देंगे।
अरे ! दयासिन्धो ! आपके प्रत्यक्ष में ये इन्द्रादि देव भक्ति में बेसुध होकर चारों और चँवरों के फटकार लगा रहे है, जिनसे असंख्य वायुकाय के
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