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G000 “सांच को आंच नहीं” (0902 - अनंत है । तब ये किसकी हो सकती है ? अनादि सिद्ध शाश्वत ईश्वर आगमकारों को तनिक भी मान्य नहीं है। अत: किसी शाश्वत व्यक्ति की ये प्रतिमाएँ नहीं हैं, फिर भी आगमो में ऋषभ-वर्धमान चंद्रानन-वारिषेण ये चार नाम दिये है । अत: आगमकारों को यह बताना है कि तीर्थंकरो के ये नाम प्रवाह से शाश्वत है । जैसे द्वादशांगी अर्थ से शाश्वत है और सूत्र से अशाश्वत है वैसे।
अत: लेखक कदाग्रह को छोड़कर मार्गस्थ बुद्धि से विचार करें तो ही आगम पाठ का संगमन हो पाएगा । इस चौबीसी में भरतक्षेत्र में प्रथम और चरम ऋषभ और वर्धमान है । ऐरावत क्षेत्र में प्रथम और चरम चंद्रानन और वारिषेण है । नाम साम्यता स्पष्ट तीर्थंकरों से ही है । और नमुत्थुणं पाठ, पूजनादि सभी तीर्थंकरों की प्रतिमा मानने पर ही संगत होते हैं । तीर्थंकर तो अशाश्वत है, प्रतिमा उनकी शाश्वत कैसे ? इसका मार्गस्थ बुद्धि से उत्तर स्पष्ट है कि शाश्वत नाम बताये है मतलब भरत-ऐरावत-महाविदेह में मिलकर इन चार नाम के तीर्थंकर किसी भी काल में होते ही है । नमुत्थुणं का पाठ भी जिनप्रतिमा के संबंध में ही दिया है और वे प्रतिमाएं अर्चनीय - पूजनीय - पर्युपासनीय है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है, जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वे प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की ही है।। ___देवों द्वारा दिवालों, दरवाजों, वावड़ियों का संक्षेप से पूजन है, तथा नमुत्थुणं से स्तवना भी नहीं है। इसलिए वह पूजन लोक व्यवहार से समझना चाहिये । इसके विशेष विवेचन के लिये देखिये 'मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास' पृ. १५ से पृ. ६७ एवं 'जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा' पृ. ७२ से प. ८६ । . ___आगे लेखकश्री, मूर्तिपूजा, जैन सिद्धांतो के विपरीत है क्योंकि उसमें फूल-दीप वगरैह एवं नाचना - बजाना वगैरह से जीवहिंसा होती है इत्यादि बातें करते हैं । उनको समझना चाहिये, मूर्तिपूजक साधुओं के चातुर्मास से बढकर, करोड़ों रुपये के आरंभ - समारंभ स्थानकवासी - तेरापंथी साधुओं के चातुर्मास में होते है । चातुर्मास में भयंकर विराधना करके बस वगैरह से वंदन के लिये जाना, वे कर्तव्य समझते हैं । उसके अलावा मर्यादा महोत्सव - संघ सम्मेलन - चद्दर महोत्सव वगैरह भात-भात के महोत्सव में हजारों की मेदनी
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