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________________ 4000 “सांच को आंच नहीं" (0902 के आमुख में पुण्यविजयजी म. ने भी की है। एवं इतिहास के इस प्रश्न के समाधान को पाने के लिए डॉ. सागरमल जैन ने भी ‘दशाश्रुतस्कन्ध एक अध्ययन' में प्रयास किया है और नियुक्तिकार को अपने हिसाब से आर्यरक्षित सूरिजी के निकटवर्ती (विक्रम की दुसरी शताब्दी, वीर नि. ५८४) होना संभवित किया है। उनके कथन से भी नियुक्तिकार वराहमिहिर से लगभग ४०० साल पहले होने सिद्ध होते है। प्रश्न-३९ का उत्तर :- वराहमिहिर की वराहिसंहिता के पीछे अंत में लिखा हुआ संवत् लेखक स्वयं निकालकर देख लेवें । उसका कोई महत्त्व नहीं है । प्रायः वि.सं ५६२ है। प्रश्न-४० का उत्तर :- धन्यवाद ! धन्यवाद ! इतनी तो आपको सद्बुद्धि हो गयी कि अंत में आपने स्वीकार कर लिया की मूलसूत्रों में अविरत श्रावक एवं देवों द्वारा मूर्तिपूजा करने की बात आती है । क्योंकि आपने प्रश्न में १२ व्रतधारी श्रावक द्वारा मूर्तिपूजा के उल्लेख के बारे में पुछा है। ___ आपने ४५ या ७२ आगम में श्रावक द्वारा मूर्तिपूजा के लिए पाठ मांगे है, अत: आपके संतोष हेतु सर्वप्रथम उभयमान्य ३२ आगम के संक्षेप से कुछ पाठ दिये है, बाद में शेष आगमों के कुछ पाठ दिये है। लेखक महाशय तटस्थतापूर्वक दिये जानेवाले प्रमाणों पर विचारें । (i) भगवतीसूत्र शतक २२, उद्देशा ११, में रानी पद्मावती और बलराजा ने महाबल (सुदर्शन श्रेष्ठी के पूर्व भव) के जन्म समय में महोत्सव किया, उसके वर्णन में ‘सए सहस्सीए, सयसाहस्सीए जाए दाए भाए....' इत्यादि लिखा है । यहाँ पर 'जाए' का अर्थ यज्ञ नहीं कर सकते है, परंतु 'जिनभक्ति महोत्सव' अर्थ करना पडता है, क्योंकि रानी के लिए ‘देवगुरुजणसंबद्धाहि कहाहिं जागरमाणी...' ऐसा लिखा है, अत: उसके सम्यग् दृष्टि होने से ‘जाए' से जिनपूजा ही अभिप्रेत सिद्ध होती है । - 104
SR No.006136
Book TitleSanch Ko Aanch Nahi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhushan Shah
PublisherChandroday Parivar
Publication Year2016
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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