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"सांच को आंच नहीं"
सूचना के अनुसार 'शंकाएँ सही समाधान नहीं' इस पुस्तिका के पुरे निरीक्षण करने पर कहीं पर भी किसी पर कठोर, आक्षेप भरे वाक्य वगैरह देखने में नहीं आये हैं । वह स्थानकवासी भाईयों के द्वारा ही छपायी गयी थी। मंदिरमार्गी संतों की बातें सुनकर जो शंकाएँ उत्पन्न हुई वे पुछी गयी थी, परंतु समाधान नहीं मिलने पर वे शंकाएँ ही प्रकाशित की गयी है, ऐसा उसके प्रास्ताविक कथन से स्पष्ट समझ में आता है । पुस्तिका में किसी समाज पर आक्षेप नही किये गये हैं, परंतु केवल सौम्य भाषा में प्रश्न पुछे गये हैं । फिर उसमें लेखक को इतना आक्रोश करने की जरुरत क्या हुई ? उत्तर नहीं आता हो तो गुस्सा करना क्या समझदारी कहलाती है ?
'अपने को चोर, धूर्त - शिरोमणि, डरपोक और महाकपटी, प्रपंची, दुर्मतिवाला कहा जाने के कर्तव्य कर रहा है' लेखक के ये शब्द किनको लागु पडते है, यह पाठक विचार करें, क्योंकि उन्होंने ही तुच्छ भाषा में तथा आक्षेपभरी यह गुमनाम पुस्तिका निकाली है, जिसमें वीतराग देव की मूर्ति की निंदा, आगमों की अवलेहना, पूर्वाचार्यों पर आक्षेप, स्थानकवासी, मंदिरमार्गी एवं तेरापंथी आचार्यादि को गद्दार वगैरह कहने की कुचेष्टा की है। और ऐसे अविवेकी कार्य करके नाम छुपाकर बैठे है ।
प्रश्न- ३८ का उत्तर :- • दिगबंरों के खुद के इतिहास में द्वितीय भद्रबाहु की बात आती है, जिनका विक्रम की छुट्टी शताब्दी में अस्तित्व था । हो सकता है, वराह मिहिर उनके भाई रहे हो और यहां किंवदंती कालक्रम से निर्युक्तिकार प्रथम भद्रबाहुस्वामी से जुड गयी हो । निर्युक्तियों में भाष्य की गाथाएं मिश्रित हो गयी होने से, इसमें मिलनेवाली परवर्ती घटनाओं के उल्लेखों से आधुनिक इतिहासकारों ने परापूर्व से सुविहित परंपरा से चली आ रही नियुक्तिकार के श्रुतकेवली होने की मान्यता को उडाकर नियुक्तिकार को निमित्तवेत्ता द्वितीय भद्रबाहुस्वामी मानने की बातें लिखी है ।
वास्तव में निर्युक्तिकार प्रथम भद्रबाहुस्वामी थे, जबकि वराहमिहिर की वार्ता द्वितीय भद्रबाहुस्वामी संबंधी लगती है । इस बात की पुष्टि बृहत्कल्पभाष्य
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