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"सांच को आंच नहीं"
नहीं थे ? व्यवहार में भी क्वचित् होने वाले किसी मुख्य कार्य को लेकर ही वस्तु का नाम प्रवृत्त होता है, २४ घंटे उस कार्य का होना आवश्यक नहीं है । जैसे कि कोई Doctor, Driver, Teacher, Toothbrush चाय की केटली वगैरह ऐसे तो कई प्रयोग है। जैसे वहाँ उन नामों की सार्थकता, प्रयोजन के आने पर ही क्वचित् होती है, उसी तरह ‘बोलते आदि समय पर मुख के आगे धारण करना', यह प्रयोजन है जिसका वह ' मुखवस्त्रिका ' कहलाती है । हाथ या केड में रखने पर भी उसे पूर्वोक्त वस्तुओं की तरह व्यवहार नय से ‘मुखवस्त्रिका' ही कहा जाता है । .
हाँ, एवंभूत नय (निश्चय नय) से तो प्रयोजन वश जब उसका उपयोग होता हो, तभी वह मुखवस्त्रिका कहलाती है । इस नय से, बिना प्रयोजन मुख पर धारण की जानेवाली आपकी मुखवस्त्रिका (१) मुखवस्त्रिका नहीं कही जा सकती है । तथा डोरे में परोयी हुई मुखवस्त्रिका, शास्त्र निर्दिष्ट नहीं होने से वह व्यवहार नय से भी मुखवस्त्रिका नहीं कहलाती है ।
अतः हमारी, प्रयोजन पडने पर उपयोग में ली जानेवाली मुहंपत्ति दोनों नयों से मुखवस्त्रिका के रुप में सिद्ध होती है, जबकि आपकी तो दोनों ही नयों से असिद्ध होती है । लेखक महाशय को जरुरत है कि लौकिक व्यवहार एवं लोकोत्तर ऐसे जिनशासन के नय-निक्षेपों का गुरुगम पूर्वक ज्ञान प्राप्त करें ।
प्रश्न- ३६ का उत्तर :- मुखवस्त्रिका का उपयोग नहीं करना, प्रमाद कहलाता है, उतने मात्र से 'वह साधु नहीं है' ऐसा नहीं कह सकते है । जैसे आप के कई साधु भी नीचे देखे बिना चलते है, बिना पुंजे - प्रमार्जे बैठते है, इत्यादि प्रमाद को लेकर उन्हें आप क्या जिनाज्ञा बाह्य, असाधु मानते हो ? प्रश्न- ३७ का उत्तर :- यह प्रश्न, प्रश्न न होकर केवल आक्षेपबाजी करने स्वरुप है ।
लेखक ने लगाये हुए आक्षेप के लिए प्रमाण देते हुए लिखा कि 'प्रश्न प्रमाण के लिए देखे, शंकाएं सही समाधान नहीं - प्रथमावृत्ति' । लेखक की
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